Saturday, July 30, 2005

बिछड़ा हुआ हुँ

६।४।१९९६


अपने जब आस पास थे
तब भी यही बात थी
दूर हो लिया हुँ सब से
अब भी वही आलम है
जाने किस से बिछड़ा हुआ हुँ
जाने किसने मिलने आना है





हर इक पल
इन्‍तज़ार का दर्द
हर इक पल
जुदाई की कस्‍क
आ लेने दे
पास अपने
इस से पहले कि
तुँ भूल जाए मुझे





इतनी कायनात
बिखेर रखी है
क्‍या याद है
तुझे मेरी भी
आलेने दे पास अपने


रो कर पुकारूँ तुझे यां
यादों में बसाऊँ
साज उठालुँ यां
शब्‍दों में सजाऊँ
तस्‍वीरें बनादूँ यां
ठोस पत्‍थर तराशुँ
बोल तो सही
मैं क्‍या हो जाऊँ
आलेने दे पास अपने



नज़रों से देखुँ तुझे
हाथों से छु लुँ
सांसो में महक हो
तेरे होने की
होंटों पर मेरे
तेरे होंटों की
लज्‍ज़त लिपटे
आगोश में मेरे
तेरे दामन की हरारत
कानों में मेरे
तेरे सिमटने की सरसराहट
ज़बान पर मेरे
बस तेरा ही नाम
आलेने दे पास अपने


तुझ से ही बिछड़ा हुआ हुँ
तुने ही मिलने आना है
तुझ से जुदाई का ही
यह आलम है
आजा तुँ पास अब
इस से पहले कि
तुँ भूल जाए मुझे




___
लक्ष्मीनारायण गुप्त ने ऐसे ही भावों को अपनी कविता कौन है वह में विशुध्‍द हिन्‍दी में लिखा है । उन की अपनी शैली है ।

1 comment:

  1. Sumir ji,

    I liked your poem very much. Found your comment through the comment you left on my blog. I am glad you liked my poem "kaun hai woh." Thank you.

    Laxmi N. Gupta

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