Saturday, August 27, 2005

पँजाबी कविता

इक रुख लगाया है
जिस दे पत्ते
वक्त पैन ते
खङक्ण गे
तलवरां वान्ग


कवी: प्रेम अबोहरी
सौजन्य: ङा सुरिन्दर खन्ना


इस का हिन्दी रुप कुछ ऐसा होगा:

एक पेड लगाया है
जिस के पत्ते
वक्त पडने पर
तलवारोँ की झन्कार देंगे

यह एक क्रान्तिकारी कविता है । हाल ही में यह कविता हमारे कालॅज में सार्थक् हुई । प्रिन्सीपल स्त्री कर्मियों को कम्जोर जान कर मनमानी सी कर रहा था । परन्तु हाल ही में एक अधियापिका उस की हठधर्मि के विरुध अड गई । सभी सहकर्मि उस के साथ हो लिए । इससे पहले सभी निर्लज बास से लोहा लेने कतरा रहे थे । युनियन भी अब दम दिखाने लगी है । ऐसे में जब सहकर्मि ख्नन्ना ने इस कविता का वाचन किया तो यह बहुत सटीक टिप्पणी लगी ।

Tuesday, August 09, 2005

शायद कल तक मैं न रहुँ

शायद कल तक मैं न रहुँ


कह लेने दो मुझको कुछ
शायद कल तक मैं न रहुँ
यह एक एहसान तेरा होगा मुझ पर
अगर मैं कुछ कह
सकुँ


शायद कल तक मैं न रहुँ


मन को मार के जिए हम
मन की गुलामी भी की बहुत
पर पा न सके कुछ भी
इन दोनों के राज में
अब मुझे कुछ कह लेने दो



शायद कल तक मैं न रहुँ


रोते रहे
हम सारी उमर
हँसने की चाह में
अब जाकर कहीं
थम्‍मी है हिच‍की
कुछ अब मुसकराने दो



शायद कल तक मैं न रहुँ


गिड़गड़ाए तेरे सामने बहुत
हँसे तेरी छाया में बहुत
कोसा भी तुझको बहुत
फिर भी तुम बरसाते रहे
मुझ पर मुहोब्‍बत



अब मुझे सम्‍भाल ही लो
शायद अब मैं न रहुँ


Monday, August 08, 2005

ईख्‍लाख़ और चाहत में जगं

न पाल उन उमंगो को
जो खेल ज़माना न माने
ज़माना गल‍त ही सही बहुत
खुदा की चहात का पमाना है



क्‍यों चाहता है वो चाहतें
जिन्‍हे पाने पर पाबन्‍दी हो
ईख्‍लाख़ और चाहत में जद्दौजेहद
पा लेने में
और खो जाने में
इक जगं हो



वो कैसी मंज़िलें
जिन्‍हें पाने पर
छोड देने की चाहत हो
जिन्‍हें पा लेने में
कोई शक हो
जिन्‍हें पा लेने पर
कोई शुबाह हो




जिस्‍मानी खूबसुरती की तरफ
खींच तो हो
पर चाहत की पाकीज़गी पर
शक भी
अगर वो नहीं
तो वो तो है
अगर वो नहीं
तो शुबा कैसा
अगर ये नहीं
तो शक कैसा



उस अफ़साने को
बीच में छोड जाना अच्‍छा
जिस के इखतसाम पर
ईक नई टीस उठे





तेरे दिल की उमंगे
नायाब हैं
कोई सड़क की
धूल नहीं
इनमें सूरज की रिश्‍मों की
पाकीज़गी है
किसी शव में लगी
आग नहीं




चाहत तेरी गज़ब सी हसीन है
हर एक गुल के लिए ये नहीं
उठते फ़ाख्‍ता को भी मिलेगा आशियाना
बागबान सभी अभी उजड़े नहीं

Friday, August 05, 2005

ज़िन्‍दगी का नशा

ज़िन्‍दगी है एक नशा ।
इसे पीना आना चाहिए ।।
यह है वो हसीन बला
जिसे लुभाना आना चाहिए ।।



जब ज़ख्‍मों में टीस उठे
दवा दारू कर लिया करो ।
तन्‍दरुस्‍त शरीर है जब तक पास तुम्‍हारे
इस जहान को भोगना आना चाहिए ।।



जाने कितने नाम दर्ज़ हैं
इतिहास के पन्नो पर ।
लाशें पर वो खो चुकी हैं

ग‍र्द के उबारों में ।।
मर के क्‍या ले जायोगे इस जहान से ।
जीते जी नाम दाम कमाना आना चाहिए ।।




खुदा के रहते भी
खुशनसीब से बद्‍नसीब हो जाया करते हैं ।
बद्‍नसीब से खुशनसीब होने का
सलीका आना चाहिए ।।



पैदायश से मौत तक का
एक सफ़र है ।
ज़िन्‍दगी की बस इतनी सी सच्‍चाई है ।
महलों से मकबरों तक
बरात बन कर
आना जाना चाहिए ।।



नफ़रतों के दायरों में
जलन की आग जलाए रखने से
ठन्‍ढ़क नहीं मिलती कभी ।
मोकाप्रस्‍ति ही सही
दुश्‍मनों की महफ़िल में भी
आना जाना चाहिए ।।

Wednesday, August 03, 2005

खुदा पर शुबा क्‍यों

हुआ करे थी आसरा
जब खुदा की लौ ।
हर एक शख्‍स से
कुछ रिश्‍ता लगता था ।।



खुदा की ज़ात पर जो हुआ शुबा ।

आसमान से हट गई नज़र ।

अब हर एक कल

किसी खोफ का नाम है ।

किसी खोफ का पेगाम है ।

कभी तख्‍तो ताज ड़गमगाते हैं ।

कभी विरानों के सपने आते हैं ।।




पर शुबा हुआ क्‍यों

मुझे यह तो बता?


जब किया था खुदा पर एतबार

अपने ही होंसले पर क्‍यों शुबा हुआ ?



अगर बुत में बसता नहीं खुदा

जिस्‍म भी तो ख़ाक में मिलेगा ।

ख़ाक में तुँ उसे मिलेगा

या तुझको मिलेगा खुदा ।।



पर शुबा हुआ क्‍यों

मुझे यह तो बता?


एक एहसास है

जिससे ॑मैं ॑ बना ।

खुदा भी है

उस एहसास का जना ।।

या तो अपने एहसास पर कर एतबार

या फिर ये बेएतबारी छोड़ दे ।।



बुत में जो नहीं खुदा

खाक में तो भी मिलेगा तुँ ।

जो तेरी ख़ाक का बुत बना

क्‍या उस बुत में मिलेगा तुँ ?



______

मैं प्रतीक का धन्‍यवाद करता हुँ आप ने सही त्रुटी पहचानी । शब्‍द शुबा है शुभा नहीं जैसा मैने लिखा था । मैने त्रुटी सुधार ली है ।

Tuesday, August 02, 2005

सहकना बन्‍द कर पाऐं

लोग बताऐं हैं सुन कर हम को
कि यह अपने दर्द की मारफ्‍त बोलता है ।
ज़ख्‍मों से हमारे अपने तीर तो निकालो
जो यह रिसना बन्‍द कर पाऐं
और हम सहकना बन्‍द कर पाऐं ।।

Musafiroon ki gintee