Sunday, October 30, 2005

विलय की नीति के मुख्य कर्त्ताधर्ता

आर० सी० मजुमदार ने British Paramountancy में Doctrine of Lapse पर जिस बात का खुलासा किया है वह यह है कि इस सिद्धान्त को पूरी तरह डलहोज़ी पर मडना ठीक नहीं होगा । इस सिद्धान्त को लागु करने पर जो बात मुख्य रुप से घटित हो रही थी वो यह थी कि कम्पनी का सीमा क्षेत्र बड रहा था । भारतिय राज्यों को बङी तेजी से नष्ट कर के उन के क्षेत्रों को कम्पनी राज का क्षेत्र घोषित किया जा रहा था ।


अब प्रश्न यह उठता है कि अगर कम्पनी का क्षेत्र बङ रहा था तो इस से डल्होज़ी को कोई खास फायदा हो रहा था या फिर हर हाल में कम्पनी को तो फायदा हो ही रहा था ।


यहां पर एक बात पर ध्यान देना ज़रुरी है और वह यह है कि यह सिद्धान्त १८५० में लागु हुआ और उस समय तक कम्पनी पुरी तरह पिट चुकी थी । कम्पनी घाटे पर जा रही थी । हिस्सेदारों को काफि समय से लाभान्श नहीं मिल रहा था । कम्पनी का कई व्यापारिक क्षेत्रों पर एकाधिकार खत्म हो चुका था । यहां तक कि कम्पनी के पास कोई एकाधिकार रह ही नहीं गया था । कम्पनी के मुकाबले में कई बरतानवी व्यापरी व्यापार कर रहे थे । १८५३ में चार्टर एक्ट में यह स्पष्ट व्यवस्था कर दी गई थी कि कम्पनी अपने कर्जदारों को जल्द से जल्द अदायगी करेगी एंव कम्पनी को बन्द करने की प्रक्रिया की शरुआत की जाऐगी । यहां तक की चार्टर में यह तक भी अकिंत नहीं किया गया था कि कम्पनी को और कितने सालों तक बने रहने कि अनुमति दी गई थी ।


इन सब बातों को ध्यान में रख कर अगर इस तथ्य की समीक्षा की जाए कि कम्पनी धङा धङ अपने क्षेत्र बढाए जा रही थी तो यह प्रशन सभाविक हि उठ खङा होता है कि वह ऐसा किस लिए कर रही थी । इस बात को दूसरे शब्दों में भी पूछा जा सकता कि ऐसे हालातों में डल्होज़ी को क्या ज़रुरत पङी थी कि वह कम्पनी का क्षेत्रफल बढाए जा रहा था जब कि कम्पनी को बन्द करने के स्पष्ट संकेत आरहे थे । यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि वो जिस भी क्षेत्र का विलय करता था उस की मन्जुरी उसे बोर्ड आँफ ड्रायक्टर्स से लेनी पङती थी और उसे वह मन्जुरी असानी से मिल भी जाती थी ।


इन सारी बातों की समीक्षा करते हुए मजुमदार यह तर्क देता है कि विलय की नीति डल्होज़ी पर नहीं मङी जानी चाहिए । यह ठीक है कि यह सारा काम डल्होज़ी के हाथों हुआ और डल्होज़ी ने भी कोई कसर नहीं छोडी । उस ने तो बडी शान से हर एक विलय को अपने नाम पर गङते हुए इस बात का गर्व किया कि उस ने यह सब किया । मजुमदार ने स्पष्ट किया है कि उस के इस खेल में बोर्ड आँफ कन्ट्रोल पूरा पूरा भागिदार था । बोर्ड आँफ कन्ट्रोल के ही ईशारे पर डल्होज़ी यह हौंसला कर सका । क्योंकि बोर्ड आँफ कन्ट्रोल का ईशारा था तो हि बोर्ड आँफ ड्रायक्टर्स से मन्जुरी मिलती गई । ड्रायक्टर्स तो यह जानते थे कि अब उन की कम्पनी तो रद्ध होने वाली है और जो कुछ भी कम्पनी हिन्दुस्तान में बनाए बैठी है उस सब की जिम्मेवारी ब्रिटिश सरकार ही ले सकती है एंव लेने वाली है क्योंकि कम्पनी तो बुरी तरह पिट चुकी थी । अगर सरकार कि ओर से ईशारा है तो उन्हें क्या दिक्कत हो सकती थी । और ऐसा हि हो रहा था ।


अतः विलय की नीति के कर्त्ताधर्त्ता ब्रिटिश सरकार खुद हि थी । कम्पनी या डल्होज़ी का नाम तो अपने पाप छुपाने के लिए किया गया एंव अपने कार्य को न्यायिक दिखाने के लिए किया गया ।


विलय की नीति के मुख्य कर्त्ताधर्ता

Sunday, October 23, 2005

लैप्स का सिद्धान्त - १८५७ के गदर का कारण: एक नया पक्ष:-

लैप्स का सिद्धान्त १८५७ के विद्रोह का कारण तो था हि पर इस सिद्धन्त को लागु करते समय जो कार्यवाई की जाती थी । वह इस सिद्धान्त के विरुद्ध विद्रोह का ज्यादा प्रभावकारी क़ारण बनी यह एक ऐसा पक्ष है जिन्हें किताबों में ज्यादा उजागर नहीं किया गया है ।

लैप्स के सिद्धान्त के अधार पर अंग्रेजों ने नागपुर को अपने कब्जे में कर लिया था । इस के बाद उन्होंने भोंसले परिवार की सम्पति जब्त कर के उसे बेचने का प्रोग्राम बनाया । महल के पशु, घोडे एंव हाथी नागपुर के पास जानवर मण्डी में ओनेपोने दामों में बेच दिए गए । महल के जेवराहत कौलकत्ता में निलामी के लिए भेज दिए गए । वहां निलामी इस प्रकार से करवाई गई कि वहां अभुषण कम दामों में बिके । इस के बाद महल का फर्निचर बेचने का प्रोग्राम बनाया गया । यह सारी गतिविधियां भौंसले परिवार के लिए अति अपमानजनक थीं । महल की वृध राजरानियां बहुत क्षुब्ध एंव भडकी हुईं थीं । इस से जनता जिन के मन में राजमहिल की वृध महिलायों के लिए बहुत आदर था, वह भी भडक उठे । उन का यह अन्जाम दुसरे राज परिवार वाले भी देख रहे थे । उन्हें भौंसले परिवार की रानियों की अपमानजनक स्थिति में अपने से भविष्य में हो सकने वाली दुरदशा की झलक दिखाई दे रही थी ।

लैप्स का सिद्धान्त तो एक कानुनी मुद्दा था यह सिद्धान्त तो विद्रोह का कारण बना ही बना पर इस के साथ जो लूटखसोट प्रशासनिक पर उपयोगवहिन एंव अन्यायिक कार्यवाइयां की गई वह खुद में विद्रोह भडकाने के लिए काफि थीं । इस बात को आर० सी० मजुमदार ने सफलता पूर्वक उजागर किया है परन्तु प्रचलित इतिहास की किताबों में इस बात को अच्छे से उभारा नहीं गया है ।

Monday, October 10, 2005

Hindi Granth Karyalay: Munshi Premchand : A brief life sketch

Hindi Granth Karyalay: Munshi Premchand : A brief life sketch


कृप्या sumir-history blog की कडी को भी देखे रमण कौल ने १०६ कहानिया HTML मे प्रेक्षित करी हॅ


The essay is by Hindi Granth Karyalaya and Publisher of Mumbai. It is about the life sketch of Munshi Prem Chand. However, the essay covers all the works of Munshi Prem Chand and there are further links to the discussion groups on which the information on Munshi Prem Chand can accessed.

I understand that it was Shashi Singh who has made posting on Munshi Prem Chand and a related news on the Literary genius of Hindi on BBC.

However, in the essay, most of the works of Munshi Prem Chand has been given. In addition to that the blogger has many other postings concerning Hindi literature and literary world. It seems to be work of a publishing house using blog as a advertising medium but it is just a view.

I apologise to the world of Hindi bloggers for writing this very post in English. I just found the content matter quite relevant for the Hindi blog world, therefore, just in good faith, I am posting it. I have seen many more postings on Munshi Prem Chand. They claim to have written the original post. But on this post, I have found some authenticity. The blogger is quoting the sources or the books and their prizes and their availability. The other posts seems have borrowed to the level of plagiarism. Well it is quite rampant on the net. In many entries on Indian History I have found the same wordings but published on different web sites without giving any reference to their source.

I have in no way abandoned my Hindi writing. It has just started after a long time and I am here to say. Just bear with me for this post.

Thanks



नीचे दी गयी कड़ी से मुंशी प्रेमचंद के जीवन लेख को पड़ा जा सकता है.
Biography of Munshi Premchand in Hindi
 The above link is provided to facilitate the request of an anonymous reader who commented in the comment section. (14/02/2010).

In addition to that one can also check the following link for views on naming the writer:
Munshi Prem Chand, Upniyas Smrat.



Sunday, October 02, 2005

A Response to Shri Laxmi. N. Gupta


A Response to Shri Laxmi. N. Gupta

I here intend to bring out in open a response to a poem of Shri Laxmi. N. Gupta titled सम्राट और भिखारी.

I have passed some remarks which refers to the blog world. I have my views on the above mentioned comments. I have placed those comments in the comment option of Shri Gupta. However, I feel that it should be placed in open as a post to invite and involve other Hindi bloggers on the issue of Hindu ethics also.

My answer follows:

गुप्ता जी,
इस में कोई शक नहीं कि कविता बहुत ही रोचक है मैने इसे सुन्दर नहीं कहा
यह बात अब ब्लॉग जगत के दिग्गज भी मन ही मन मान रहे होंगे की विचारों को कविता में आप सहज ही पिरो लेते है आप यह काम बङी दक्षता से करते हैं अगर अरस्तु के विचारों का सहारा लुँ तो कविता ही चेतन मन एंव इतिहास बोद्ध का उच्चत्म रुप है तुलसीदास ने भी रमायण के अयोध्या काण्ड के मंगलाचार में कविता को बोद्धिक क्षमता पर दैवी प्रभाव एंव प्रताप बताया है


परन्तु मैं आप की कविता में दर्शाए दर्शन से सहमत नहीं हुँ

देखिए अगर चाहत न होती
तो द्वन्द न होता
द्वन्द न होता तो होता संघर्ष न होता
संघर्ष न होता तो प्रयत्न न होता
प्रयत्न न होता तो उसार न होता

अगर उसार नहीं है, प्रगती नहीं है तो जीवन अर्थहीन हो जाएगा
भविष्य में मोक्ष की सम्भावना नहीं रहेगी शायद Weber भी इसी बात से अचम्भित था कि भारतिय कर्म सिद्धान्त Protestant ethics के समान होते हुए भी वह socio-economic result नहीं दिखा पाया जो Protestant ethics ने western Europe में दिखाएं हैं

ज़रुरत है तो चाहत में शुद्धता लाने की प्राप्ति के माध्यम को चुनने की

Monday, September 26, 2005

फगवाड़े का फटका (Phagwara Ka Phatka)


मुझे फगवाडे वाली घटना भूलती नहीं है । रह रह कर याद आ ही जाती है ।

जन्‍म से तो मैं ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ हुँ । कहीं पर ब्राह्मण होने की श्रेष्‍ठता दिमाग में घुसी हुई है । और इस के साथ अपनी पढ़ाई के गर्व का बुखार ऎसा है कि किसी कम पढ़े लिखे को हम से बात करने के काबिल ही नहीं मानते । मानवतवाद एंव समानता की बातें तो करता हुँ पर जातिभेदभाव कहीं न कहीं व्‍यक्‍तित्‍व एंव सोच पर जड़े हुए हैं ।

पर उस दिन तो मैने किसी पक्‍के बनिए को भी मात कर दिया था । हुआ युँ कि मेरी पत्‍नी फगवाड़े में एक स्‍कूल अध्‍यापिका है । मेरे कहने पर वो अपना वेतन चैक के रूप में ही लेती है । उस चैक का भुगतान फगवाड़े में स्‍थित बैंक में ही होता है ।

हम फगवाड़े से लगभग २२ किलोमिटर दूर फिलौर नामक कस्‍बे में रहते हैं । मैं खुद फिलौर से १७ किलोमिटर दूर पंजाब के मुख्‍य शहर लुधियाना (Ludhiana) में लैक्‍चरार (Lecturer) हुँ । बेश्‍क मैं मात्र एक लैक्‍चरार हुँ पर हम खुद को प्रोफैसर कहलाने में बहुत गर्व महसुस करते हैं । वैसे यह भेद की बात है कि ऎसा कहलाने का हमें कोइ हक नहीं है ।


लुधियाना एक बड़ा शहर है । एक बड़े शहर की सहुलतें भी वहां मिलती हैं । सभी प्रकार के बैंक वहां पर हैं और उन में ऐ॰टी॰एम (A. T. M) की सुविधा भी है । ऐ॰टी॰एम की सुविधा को मैं बहुत महत्तवपूर्ण समझता हुँ ।


फगवाड़ा एक छोटा शहर है । यह शहर पंजाब के दुयाबा (Doaba) या जलन्‍धर बिस्‍त दुयाब (Jalandhar Bist Doab) में पड़ता है । जानकार यह जानते होंगे कि पंजाब का यह क्षेत्र वैसे तो कृषि प्रधान क्षेत्र है परन्‍तु यह प्रवासी भारतियों, विदेशों में रहने वाले पंजाबियों के लिए एंव वदेशों से धन पंजाब में लाने वालों के लिए ज्‍यादा जाना जाता है । मुलतः पंजाब का यह क्षेत्र धनी लोगों का क्षेत्र है । यहां के बैंक अपने ग्राहकों को वह सभी सुविधाऐं देने की कोशिश करते हैं जो कि प्रवासी भारतियों को चाहिए । इस लिए फगवाड़ा एक छोटा शहर होने पर भी, वहां लगभग सभी मुख्‍य बैंक हैं ।


परन्‍तु यहां एक पेच है । मैं फगवाड़ा ज्‍यादा नहीं जाता । मैं रोज़ लुधियाना जाता हुँ । रकम सम्‍भालने का काम मेरा है । मैं रकम ऐसे बैंक में रखना पसन्‍द करता हुँ जहां ऐ॰टी॰एम सुविधा हो ।

अब जो चैक फगवाङा से भुनवाना होता है, अगर उसे हम लुधियाना के बैकों में लगा दें तो लगभग पचास रुपये कट जाते हैं । दुसरा ऐसी रकम लगभग १५ से २० दिनों में ही हमारे खाते में आती है । बस यहीं पर मेरी उस दिन की घटना का कारण पैदा हो गया । मैं ब्राह्मण से बनिया बन गया पर आज तक उस सफर को भूल नहीं पाता ।


मेरी पत्नी को अपना वेतन कभी समय पर नहीं मिलता । वैसे भी उस महीने मेरा हाथ तंग था । यह तय था कि इस बार उस के वेतन का प्रयोग घर के खर्चों में होगा ।


जब चैक मिला तो मेरी पत्नी ने उसे लाकर मेरे हाथों में थमा दिया । मैने दुसरे ही दिन चैक लुधियाना में लगाने का सोच लिया । पर जब दुसरे दिन लुधियाना पहुँचा तो कालिज जल्दी बन्द होने के कारण मैं उलटे पाँव घर जल्दी आ गया । मैने चैक नहीं लगाया था । घर पहुँच कर देखा कि चैक लगान रह गया है । ऊपर से पैसों की ज़रुरत भी पडी हुई थी । बस इसी हालात ने इस घटना को जन्म दे दिया ।


मेरा दिमाग बहुत तेजी से चल रहा था । मैने सोचा कि अब तो दुसरे ही दिन जा कर चैक लगा सकुँगा । उस के बाद मुझे पन्द्रहा से बीस दिन और इन्तज़ार करना पडेगा । इस के अलावा पच्‍चास रुपय भी कट जाऐंगे । मैने सोचा कि जब मेरे पास समय है तो मैं फगवाङा चला जाता हुँ । फगवाङा जाने के दस रुपय और आने के दस रुपय और अगर दस रुपय रिक्शा का खर्चा मिला लुँ तो लगभग तीस रुपय लगेगें । और अगर अपने स्कुटर पर निकल पडुं तो यह सब तीस रुपय में हो जाऐगा । इस तरह पन्द्राह बीस दिनों का इन्तज़ार भी बचेगा । और इस तरहां हम उस दिन बानियों की सोच के मालिक बन बैठे ।


मुझे सौदा अच्छा लगा और युँ समझते हुऐ कि मैं बीस रुपय घर बैठे बैठे कमा लुँगा और चैक भी भुनवा लुँगा, मैने फगवाङा जाने का फैसला कर लिया । चैक सात हज़ार पाँच सौ का था । मुझे केवल दौ हज़ार रुपय ही चाहिऐ थे । मैने सोचा कि दुसरे दिन पाँच हज़ार लुधियाना में जमां करवा दुँगा । उस की फिक्स डिपाज़िट भी उसी दिन बन जाऐगी । इस तरह तो सोने पर सुहागा हो जाएगा ।


बस जी मैने स्कुटर उठाया और फगवाडे की ओर जी०टी रोड(G. T. Road-Grand Trunk Road NH 1 or Sher Shah Suri Marg) पर निकल पडे । जल्द ही लहलराते खेत दिखाइ देने लग पडे । मन में एक अजीब तरह का गर्व महसुस हो रहा था । देखो तो कितनी समझ से काम ले रहा था । बस जाते ही चैक जमा करवा कर पैसे निकलवा लेने थे और उस पर बीस रुपय भी बचा लेने थे । हाथों हाथ एक दिन की कमाई बीस रुपय बढा लेनी थी । ऐसा सोचते हुए मैं फगवाडे पहुँच गया ।

मुझे बताया गया था कि फगवाडे के शुरु में ही वह बैंक है जहां से चैक का भुगतान होना था । फगवाडे में घुसते ही वह बैंक दिखाई दिया । जी०टी रोड से उतर कर एक टुटी हुई सडक उस बैंक तक जाती थी । हमने उस बैंक के पास जा कर अपना स्कुटर रोका । उस बैंक में घुसने के लिए हमे जालीदार दरवाज़े से कुछ फंस कर अन्दर जाना पडा । पँजाब में आतकंवाद तो खत्म हो चुका है परन्तु उस समय में अपनाए गए सुरक्षा के नाम पर प्रवेश द्वारों पर अवरोध अभी भी मिल जाते हैं । वह ग्राहकों के कार्यों में अब भी अवरोध पैदा करते हैं ।

साहब मैं बैंक में प्रवेश कर गया । एक लम्बी सी अन्दर को जाती हुई गुफा के समान उस बैक की रुपरेखा थी । प्रवेश द्वार के दुसरे छोर पर अन्धेरा लग रहा था । पहला भाव मन में यह ही आया, अरे कैसा बैंक है टुटा फुटा सा?

मैने अन्दर प्रवेश करते ही साहयक कांउटर देखा । उस के सामने कुछ ज्यादा उमर की एक ग्रामिण महिला खडी थी । मेज़ के दुसरी ओर एक बैंक कर्मचारी कुछ लिखने लगा हुआ था ।

मैने आगे बड कर धीरे से कहा,

"ऐकुज़ मी !"

उस बैंकर ने सिर उठा कर मेरी ओर देखते हुए कहा,

"यैस ! कहिए ?"

मैने उस के बात करने के लहज़े से अनुमान लगाया कि वह तो दक्षिण भारतिए है । मैने झट से अंग्रेज़ी का सहारा लिया । जैसी कि अपनी यह चाल रहती है कि जब कभी भी अंग्रेज़ी बोलने का मौका मिले, हम ऐसी अंग्रेज़ी बोलते हैं कि जैसे अभी ही हिथ्रो एयरपोर्ट(Heathrow Airport)से चले आए हैं और भारत आकर अभी ही मुँह खोला है । अरे भाई, हम तो हाईली ऐजुकेडिड हैं न !!


तो साहब मैंने पहले यह पुछा कि जो चैक मेरे हाथ में है क्या उस का भुगतान उसी शाखा से होगा ? मैं अपनी बात पूरी ही नहीं कर पाया था कि जो ग्रामिण महिला पहले से ही खडी थी, वे बिच में ही बोल पडी,

"बे काका, मैं पैसे बी कडाने ने ।

वो बैंकर जो मुझे सुन रहा था, उस महिला की ओर मुख कर के बोला,

"आप की कापि अभी आति ही होगी । आप तब तक वोचर भर लो ।"

यह कहते हुए उस ने मेरे हाथ से चैक पकड लिया । उस चैक का निरीक्षण करते हुए मुझे बताया कि वह चैक उसी शाखा का है परन्तु उसे पहले उस के नाम पर जमा कराना पडेगा जिस के लिए वह निकाला गया है और वही व्यक्ति उसे निकलवा सकता है । मैने उसे बताया कि मेरे पास राशि प्राप्त करने वाले व्यक्ति का "सैल्फ" का चैक है और मैं ही पैसे निकलवाऊँगा ।

अभी मैं अपनी बात पूरी ही नहीं कर पाया था कि वही महिला बीच में फिर बोल पडी,
"बै काका, इह बोचर ताँ तुँ ही पर दे । मैं अनपढ तों नइयों पर होना ।

बैंकर ने उसे की ओर ध्यान देते हुए बडे विनम्र भाव से कहा,
"अच्छा माता जी ।"

इस पर मुझे थोडी सी खिज आई । मैने अपनी बात पूरी नहीं की थी और यह महिला बीच में टोके जा रही है । मैंने भी बीच में टोकते हुए पुछा कि क्या वह मुझे चैक जमा करवाने और पैसे निकलवाने की विधि तथा उप्युक्त फार्म दिलवा सक्ता है । इस पर उस बैंकर ने कुछ फार्म से निकाल कर मुझ से खाता धारक का नाम पुछने लगा । इस से पहले मैं कुछ बोलुँ, वही महिला फिर बोल उठी,
"बे, काका, मेरा बी कम करदे ।"

मैने उस महिला की ओर देखा । उस ने अजीब से ढंग से चुन्नी ली हुई थी । उस के बाल आधे काले आधे सफेद थे । देखने में वह किसी सधारण से घर से लग रही थी । मेरे मन को हुआ कि इस औरत ने मेरे काम में दो बार रुकावट डाली है । यह कोई दो तीन हज़ार रुपया लेने आई होगी । शायद यह कन्हि पर आया या माई का काम करने वाली छोटी जाति कि औरत होगी । यह बिन वज़ह तंग कर रही है ।

मैंने बैंकर की ओर देखते हुए अंग्रेज़ी में कहा कि मैं फार्म खुद भर लुँगा । इस पर जैसे उस ने राहत सी महसुस की और मुझे बढे अच्छे ढंग से बताया कि कौन सी खिडकी पर मुझे चैक देना है और कहां से सेल्फ के चैक का टोक्न लेना है । जब वह यह सब मुझे बता रहा था तब भी उसी महिला ने उसे दो तीन बार टोकने की कोशिश की । इस पर बैंकर ने उसे विनम्रता से कहा,

"माता जी, आप का काम अभी करता हुँ ।"


मैने फार्म ले लिए और वहीं कुछ हट कर फार्म भरने लगा । वह महिला अभी भी वहीं खडी उस बैंकर को कह रही थी कि वह उस का भी फार्म भर दे । उस की अवाज़ मेरे कानों में पड रही थी । मन ही मन मैं कह रहा था कि अशिक्षित व्यक्ति खुद तो तंग होता ही है और दुसरों को भी तंग करता है ।


इतने में मुझे सुनाई दिया कि वह बैंकर उस महिला से बोला,

"लाओ माता, आप का वोचर भरुँ । कितने पैसे निकलवाना चाहती हो ?"
मैने मन में बोला, "दो हज़ार !!"

उस समय में फार्म पर चैक की सात हज़ार पाँच सौ की रकम भर रहा था ।
मेरे कान में बैंकर की फिर अवाज़ पडी,
"माता, कितनी रकम निकलवानी है ।

दो ही पल में मैने फिर सुना,
"माता, दो लाख ही लेने हैं न , ठीक है ।"

वह महीला बोली,
"हां काका, हाले इने ही पैसे चाहिदे हण ।"

मेरी कलम वहीं रुक गई । मैने सिर उठा कर उस महिला की ओर देखा । वह बडी शान्ति से घडी थी । उस के चेहरे पर किसी भी तरह का भाव स्पष्ट नहीं हो रहा था ।

मैने मन ही मन में कहा,
"लिखना तक तो आता नहीं और दो लाख निकलवाने लगी है । क्या करेगी इतने पैसों का? भग्वान ने भी जाने कैसे कैसे लोगौं पर कृपा कर रखी है ।"

युँ खुद से ही बातें करते हुए मैने लिखा पढी का काम निपटाया और टौकन लेकर रकम निकालने वाली खिडकी टैलर (Teller) के पास चला गया । यह खिडकी बैंक के काफि भीतर जा कर थी जहां रोशनी बहुत कम थी । कैशियर अपनी कुर्सी पर नहीं बैठा हुआ था । उस का कैबिन पिछे से शायद बन्द था । मैं जा कर उस के कांऊटर के पास खडा हो गया ।

मन में गर्व हो रहा था कि मैने एक बहुत बडा मोर्चा मार लिया है । अभी कैशियर ने आ जाना था । मुझे रकम मिल जानी थी । अगले चालिस से पचास मिन्ट तक मैने घर में होना था । मेरी नज़र साहयक कांऊटर पडी । वही ग्रामिण महिला अभी भी वहीं खडी थी । शायद उस के दो लाख का वोचर भरने का कार्य पूरा नहीं हुआ था । मेरी नज़र मेरे दांई ओर दिवार से सटी हुई सैटी पर पडी । वह सभी सीटें कोइ चालिस पच्चास की उमर की औरतों से भरी पडी थीं । मैने उन को अनदेखा स करके अपने बाईं ओर टैलर की सीट की ओर देखा । खजान्ची अभी भी नहीं आया था । मेरी नज़र बैंक के अन्य कर्मचारियों का नरिक्षण करने लगीं । दिमाग में भी विचारों के घोडे धौड रहे थे । मुझे अपने प्रकाशक का ध्यान आया । साथ की साथ मुझे अपनी अगली किताब के बारे में विचार आने लगे ।


मैं अपने विचारों की दुनिया में खोता चला जा रहा था । इतने में टैलर की कैबिन का दरवाज़ा खुला । दो व्यक्ति दरवाज़े में फसते से हुए एक भारी भरकम सी पेटी कैबिन के अन्दर ले आए और ज़मीन पर रख दी । फिर एक आदमी बाहर निकल गया पर जल्द ही हाथों में नोंटों की गठियां अन्दर आकर दुसरे व्यक्ति को दे दी । दुसरे व्यक्ति ने वह गठियां टैलर की मेज़ पर टीका दीं । अब फिर पहला वाला व्यक्ति और गठियां ले आया । इस प्रकार वह सात आठ बार अन्दर बाहर हुआ और हर बार कुछ गठियां पहले आदमी को पकडा दी । फिर उन दोनो में कुछ बात चीत हुई और पहला व्यक्ति बाहर चला गया । दुसरा व्यक्ति कैबिन में ही रहा । खजान्ची की सीट पर बैठने से पहले उसने कैबिन के दरवाज़े को ताला लगाया । फिर उस ने कैबिन से बाहर लगी हुई एक कुर्सी पर बैठे एक अन्य कर्मचारी से बात करी । उस ने टैलर कैबिन में बहुत से कागज़ ठकेल दिए जिसे खजान्ची की सीट पर बैठे व्यक्ति ने लपक लिए । सो यह व्यक्ति खज़ान्ची ही था । मैने सोचा, चलो खज़ान्ची तो आगया और अब यह काम निपट जाएगा । इतने में खज़ान्ची ने वो कागज़ जो उसे साथ वाली सीट से मिले थे शायद उन्हें समेट लिया था । मेरी नज़र लगातार उस पर लगी हुई थी । कुछ देर बाद खजान्ची ने अपने कैबीन से बाहर की ओर देखा । मैने झट से अपना टोकन उस की ओर कर दिया । खजान्ची ने टोकन पर मेरा नम्बर देखा और फिर मुझे रुकने के लिए कहा । मैने अपना हाथ पिछे हटा लिया और शान्ति से खडा रहा ।

कुछ ही पलों बाद, खजान्ची अपनी सीट से थोडा स उठा और ज़ोर से अवाज़ लगाई,
"बीबी राजिन्द्र कौर !!"

मेरी नज़र झट से दाईं ओर गई जहां पर बहुत सारी औरतें बैठी हुई थीं । जहां मैं खडा था वहीं करीब से एक महीला उठी और बोली,
"हां बीरा, मैं हां राजिन्द्र कौर !!"

"माता, किने पैसे क़डाने ने?", खजान्ची ने पूछा ।

वह महिला मुस्कराती हुई बोली,
"बीरा, मैं नौ लख कडाने ने !!"

"नौ लाख!!!" यह रकम मेरे कानों में सनसनाती सी लगी ।

मेरी नज़र उस औरत पर टिक गई । उसने चमचमाती सी सलवार कमीज़ पहन रखी थी । बाल उस के हलके से बिखरे हुए थे । हाथ में उस के एक नीले रंग का बडा सा बैग था जिस पर ब्रिटिश एयरवेज़(British Airways) का चिन्ह साफ दिखाई दे रहा था । बैग पर फलाईट कलीयरन्स की चेपी भी लगी हुई थी जो की काफि ताज़ी जान पडती थी । ऐसा लग रहा था कि वह बैग शायद एक दो दिन पहले ही हवाई जहाज़ से लाया गया हो ।

इतने में खजान्ची बोला,
"नहीं, तुसी नहीं । तुसी हाले बैठो ।"

खजान्ची ने फिर ऊँची अवाज़ कर के बौला,
"बीबी रजिन्द्र कौर है कोई?"

अब की बार उन सीटों पर दुसरे छौर पर बैठी एक और महिला बौली,
"हां काका, मेरा नां बी रजिन्द्र कौर है ।"

खजान्ची उन्हें अपने पास बुलाते हुए बोला,
"इदर नेडे आवो ।"

वह महिला जो कि चालिस से ज्यादा की लगती थी, अपना कुछ समान समेटने लगी । उस के साथ एक दुसरी महिला भी खडी हो गई । इस महिला के पास एस लम्बा सा बैग था जिस पर ऐरोफलोट हवाई सेवा (Aerofloat) का चिन्ह था । वह भी उस की मद्द करने लगी । इन महिलाओं ने टैलर की खिडकी की ओर आने में कुछ समय लगा दिया ।

मेरा ध्यान मेरे नज़दीक बैठी महिला की ओर फिर चला गया जिसने नौ लाख रुपऐ माँगे थे । वह अपनी संगनी से बातों में मस्त थी । मैने उस की बातों की ओर ध्यान दिया । वह पंजाबी में कह रही थी कि ६५००० की टिकट लेकर सरदार जी (उस के पति) बाहर गए हैं ।

फिर उस की संगनी ने उस से कुछ कहा, जिस के जवाब में वह बोली,
"लै, उह प्लाट तां आसी ३५ लख विच लिता सी!!"

इतने में दुसरी राजिन्द्र कौर अपनी संगनी सहित टैलर पर आ गई थी ।

खजान्ची उस से पूछ रहा था,
"माता, किने पैसे कडाने ने ?"

"काका, सानु तां सत लख चाहिदे हण ।" वो बोली

खजान्ची ने कहा,
"दवो, अपना टोकन दवो ।"

"सात लाख !!!" मेरे होश पर यह रकम भी फटाक से लगी । मैं सोचने लगा कि नौ लाख इस औरत ने निकलवाना है । सात लाख यह औरत लेकर जा रही है । अभी वो दो लाख निकलवाने वाली ने आना है । कुल हुआ १८ लाख । और इस नौ लाख वाली के पास ३५ लाख का प्लाट है । वाह, क्या बात है !! कैसे लोग इतना पैसा कमा लेते है और वह भी विदेश जा कर जहां के सम्बन्ध में यह पहले से कुछ नहीं जानते ।


अभी मैं ऐसी बातें सोच ही रहा था कि करीब में बैठी उसी महिला की बातों ने मेरा ध्यान फिर से अपनी ओर खींच लिया ।

वह कह रही थी,
"हां बहन, साडे मुण्डे ने तां सारे दरिद्र धो दिते । इस कोठी ते आसां कोई २७ लख लगा चुके हां । सरदार जी गए होए हण । हुन उह कैन्हदा है कि दुजी कोठी दा कम पूरा करन लई ३२ लख भेज देवेगा । वाहे गुरु दी बडी मेहर है । मुण्डे ने इसी साल दो बार तां मेरे ही बारदे चक्कर लगवा दिते हण । हुन मैं जा के इन पैसेयां नाल ऐजण्ट राहीं अज नवीं क्वालिस टोटा(Qualis Toyta) कडा लेनी है । सरदार जी सारा सैट कर गए हण । परसों सरदार जी अते भरजाई केनेढे(Canada) तो आ रहे हण । हुन सानु तिन गडियां दि लोड है ।"

यह सारी बातें मुझे ऐसे लगें कि जैसा मेरा मज़ाक उडा रहीं हों । मेरे मन में आए कि यह माँ अपने बेटे पर कितना गर्व कर रही है । देखने को तो यह सधारण सी अनपढ महिला लगती है पर इसने ऐसे लाल को जन्म दिया है जिसने इस के घर के सारे दरिद्र धो दिए । और मैं, जिसे अपनी शिक्षा पर इतना मान है, मैं क्या हुँ । अगर मेरी माँ आज मुझ से एक लाख भी माँग ले तो मैं नहीं दे पाऊँगा । क्या मैं बाहर जा कर इतना धन कमाने की समझ और हिम्मत रखता हुँ ।

पर मेरी हैरानी एंव परेशानी अभी और बडनी थी । जो राजिन्द्र कौर टैलर पर खडी थी उसे पैसे मिलने शुरु हो गए थे । कैशियर ने दोनों हाथों में दो दो नोटों की गठियां काऊँटर पर रखी । इस पर राजेन्द्र कौर बोली,
"काका बडे नोट नई ?"

कैशियर बोला,
"माता नहीं, बैंक चे ऐही नोट हण । लेने ने ?"

"चल लेया, ऐही दे ।" राजिन्द्र कौर बोली ।

उस ने वह गठियां पकडी और साथ खडी अपनी संगनी को बोली,
"खोल ।"

उस की संगनी के पास जो ऐरोफ्लोट वाला बैग था उसने उस का मुँह खोल दिया । राजिन्द्र कौर ने नोटों से भरे दोनों हाथ बैग में घसोडे और खाली हाथ बाहर निकाल लिए । फिर उस ने कैशियर को देखा । कैशियर नोटों की दुसरी घेप लिए हुए अपनी सीट से खडा हुआ था । राजिन्द्र कौर ने फिर उस से नोटों की गठियां पकडी और साथ खडी महिला के हाथ में पकडे बैग़ में डाल दीं । यही परक्रिया युँही कुछ सात आठ बार चली होगी । फिर अचानक कैशियर अपनी सीट पर बैठ गया और कुछ लिखने लगा ।

राजिन्द्र कौर बौली,
"काका, होर नहीं बस ?"

कैशियर बौला,
"हां माता, होर नहीं, पूरे दे दिते ।"

राजिन्द्र कौर ने जवाब में कहा,
"अच्छा लेया, किथे अँगुठा लाना ऐ ?"

यह सब देख मैं चक्करा गया । उस औरत ने सात लाख रुपया लिया पर उसे यह मालुम नहीं है कि वह सात लाख रुपया ही है । उस पर वह कैशियर से पूछ रही है,
"काका होर नहीं!!?"

वाह क्या दिलेरी है ? अगर मैं होता तो मैने एक एक गठठी गिन्नी थी । यह औरत एक दम अनपढ है । क्या इस का लडका भी बाहर गया हुआ है ? वह भी नोट पर नोट भेज रहा है? क्या मेरी माँ ने होनहार लाल पैदा नहीं किया ? क्या मेरी पढाई मात्र एक मज़ाक है ? क्या इतना पैसा मैं आज के दिन कमा पाया हुँ? क्या आने वाले दिनौं में मैं इतना पैसा कमाने की क्षमता रखता हुँ?

मेरा मन विचलित हो गया । मुझे अपने आप पर शर्म आने लगी । मुझे लगने लगा की मेरी सारी पढाई फज़ुल और बक़वास है । मैं मन को धोखा दो रहा हुँ । मेरा अपने ज्ञान पर गर्व एक मज़ाक है ।

इतने में कैशियर ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचते हुए कहा,
"दो जी, अपना टोकन दो ।"

मैने अपने विचारों की लडी को तोड कर कैशियर को अपना टोकन थमा दिया । उसने मुझे ७५०० की रकम हस्ताक्षर करवाने के बाद दे दी । मैने नोट पकडे और गिन्ने लगा ।

इतने में कैशियर न्ए अवाज़ लगाई,
"सुरिन्द्र कौर !!"

मैने कोई ध्यान नहीं दिया । मैने नोट गिन लिए थे । मैं बैंक सि बाहर निकलने के लिए चल पडा । मेरे कान में अवाज़ पडी, "पंज लख ।"

मेरे कदम तेज हो गए । मैं बैंक से बाहर भाग जाना चाहता था । बाहर निकल कर मैने स्कुटर उठाया और फिलौर की ओर चल पडा ।

मेरा मन उच्चाट था । अब मुझे हरे भरे खेत अच्छे नहीं लग रहे थे । मेरे कानों में वही शब्द बार बार सरगर्मी कर रहे थे ।
"नौ लाख !"
"सात लाख !"
"पांच लाख !"
"दो लाख !"
"साडे काके ने तां सारे दरिद्र धो दिते !!"
"वाहे गुरु दी बहुत मेहर है !!"
"आसी ओह प्लाट तां ३५ लख दा लिता सी !!"

जो हरे भरे खेत पिछे छूट रहे थे वह अब हरे भरे खेत नहीं रहे थे । मन में आ रहा था कि यह जिन के भी खेत हैं वह प्रति खेत एक यां दो करोड के मालिक हैं । जिस के पास दस खेत है वह दस करोड का मालिक है । उस का लडका भी बाहर जा सकता है जहां से वो और कमा के ला सकता है । उन के सामने मेरी क्या बिसात ? मैंने तो २० रुपय बचाने के लिए तीन घन्टे लगा दिए । युँ मन ही मन कल्पता हुआ मैं घर पहुँच गया ।

घर पहुँच कर मैं सीधा अपने कमरे में चला गया । जेब से ७५०० रुपय निकाले । उन्हे फिर गिना । उन में से २००० निकाल कर अलग कर लिए । फिर ५५०० के नोटों को गिन्ने लगा । पर गिन्नती पूरी करने से पहले ही उन को अलमारी में रखने के लिए उठ खडा हुआ । दिमाग में वह चित्र घुम रहा था कि कैसे उस महिला ने बिना गिने ही सात लाख रुपय अपने थैले में ठुस लिए थे । और यहां मैं ७००० रुपय तीन बार गिन चुका हुँ ।


फिर मैं अपने सडडी रुम में चला गया । क्मप्युटर आन कीया । पहले से लीखे कुछ नोट्स टंकन करने लगा । पर दिमाग में उस बैंक का चित्र और उन औरतों की बातें गुँजने से हटती ही नहीं थीं । मन विचलित हो रहा था । क्या फायदा है इस पढाई का ? बिच में ही काम छोड कर अपने कमरे में आ गया । बिज़नेस टुडे(Business Today) का नया सकंलन कमरे में पडा हुआ था । उस में २००२ एम०बी०ए० कालजों की रूप रेखा एंव पलेसमेन्ट पर लेख पढने लगा । पर जैसे ही १० लाख १५ लाख पैकेज की बातें पढनी शुरू कीं मन फिर से अपनी हैसीयत का अवलोकन करने लग गया । तब फिर से दिमाग में उन औरतों की बातें घुमने लगीं की वाहे गुरु की बहुत कृपा है; हमारे लडके ने हमारे दरिद्र धो दिए । मेरी नज़र सामने लगी शिव जी एंव वैष्णो देवी(Ma Vaishnu Devi - Katra J&K) की तस्वीरों पर जाकर अटक गई । मन उच्चाट था । मेगज़ीन बीच में ही छोड कर कीचन में चला गया । वहां मम्मी कुछ पका रहीं थीं । उन से चाय बनाने के लिए कहा । मन में एक घबराहट सी हुई कि अगर मम्मी अभी मुझ से ५०००० मांगे तो क्या मैं दे पाऊँगा । मैं कीचन से बाहर जाने लगा ।

मम्मी ने अवाज़ लगाई,
"यह तुम्हारी चाय बन रही है, लेकर जाना ।"

"अच्छा मम्मी" कह कर मैं कीचन से बाहर खडा हो गया । इधर उधर पडी चीज़ों को बस युँ ही देखने लग पडा ।

इतने में मम्मी की अवाज़ आई,
"यह अपनी चाय लेजा ।"

मैं "अच्छा जी" कह कर अन्दर गया और चाय का ग्लास उठा कर अपने कमरे में आ गया ।
अनमने मन से मैं चाय पीने लगा । जाने कैसे कैसे वीचार मन में आते गए । समय कैसे बीता पता ही नहीं चला । इतने में मेरी पत्नि कमरे में दाखिल हुई । वह स्कूल से वापिस आ चुकी थी मुझे इस बात का पता ही नहीं चला ।

"कैसे हो ?" उसने मेरे पास बैठते हुए पुछा ।

"मैं आज तुम्हारे बैंक से पैसे निकलवा लाया था । ५५०० अलमारी में रख दिए हैं और दो हज़ार मैने रख लिए हैं । " मैने बुझी हुई सी अवाज़ में कहा ।

"अच्छा, आज आप फगवाडे आए थे । स्कूल आ जाना था ।" वह बौली ।

"नहीं, मैं तो १२ बजे वापिस हो लिया था ।" मैने उसे बताते हुए कहा ।

"क्या बात, बडे बुझे बझे से लग रहे हो ?" उसने मेरे हाथ पर हाथ रखते हुए पूछा । उस ने भांप लिया था कि मैं कुछ उदास हुँ ।

"बैंक में कोई बात हुई ?" उसने बिना मेरे किसी जवाब का इन्तज़ार करते हुए पुछा । उसे अशंका हुई कि जैसी मेरी आद्दत है अगर कोई उलटी सीधी बात हुई हो तो मैं वहां अवश्य किसी से तीखी बैहस में पडा हुँगा ।

"नहीं ऐसा कुछ नहीं हुआ ।" अखिर मैं बोला ।

"पैसे असानी से मिल गए थे क्या ?" उसने मुझे कुरेदने की कोशिश की ।मैने "हां" में जवाब दे दिया ।

"क्या बात ? बडे बुझे बुझे से लग रहे हो । उसने अपना पहला प्रश्न फिर दोहराया ।

अब की मैं बौला,
"वैसे हमारा इतनी क्वालिफिकेशन लेने का क्या फायदा ?"

मेरी बात सुनते ही उस ने मुझे कुछ गम्भीर लेहज़े से देखा ।

फिर बोली,
"मुझे सच सच बताओ । कहीं आप का बैंक में झगडा तो नहीं हुआ?"

मैं इस बात से थोडा स झला गया ।

मैने ज़ोर दे कर कहा,
"अरे भाई, ऐसा कुछ नहीं हुआ ।"

"फिर भी, बताओ तो, हुआ क्या है? बडे उदास हो ।" उस ने कुछ सहानुभुती वाले भाव से कहा ।

मैने कहा,
"कुछ नहीं हुआ ।"

"वैसे सोचो," मैने बात को जारी रखते हुए पुछा, "हम वैसे कितना के कमा लेते हैं ।"

"क्यों क्या हुआ? अच्छा खाते हैं । अच्छा खर्च करते हैं ।" वह बोली ।

"अरे यह कुछ भी नहीं । बस धोखा दे रहे हैं।" मैने उस की बात खत्म होते ही बोला ।

"जरा सोचो," मैने बात आगे चलाते हुए कहा," यह जो बाहर निकल जाते हैं, वह कितना कमाते हैं? हम से कई गुणा ज्यादा!! तुम्हारे भी विद्यार्थी हैं, जो तुम बताती हो, कि बाहर जाने वाले हैं । और यह भी बताती हो वह कितने नलायक और जङ बुद्धी हैं । ऐसे ही विद्यार्थी मेरे पास एम ० ए० (M. A.) में पढते हैं । पता है, क्यों पढ रहे हैं? उन्होंने बाहर जाना है और अम्बैसी (Embassy) को कन्टिन्युटी (continuity) दिखाना चाहते हैं । अंग्रेजी का एक शब्द ठीक से नहीं बोल पाते और अंग्रेज़ी में कुछ पूछ लो तो कहेंगे हमें समझ नहीं आया । बाहर जाके यह हम से ज़्यादा कमाई करेंगे । "


मैने बात को जारी रखा और मेरी पत्नि की आँखे मेरे चेहरे पर गढी हुई थीं ।

"जरा सोचो," मैं बौला, "यह मन्दबुद्धी से दिखने वाले बिलकुल नई जगह चले जाते हैं । उन्हें वहां कोई नहीं जानता । पर वह वहां जाकर अपने पैर जमाते हैं । घर बसाते हैं । फिर लाखों नोट यहां वापिस भेजतें हैं । क्या हम ऐसा करने का साहस रखते हैं? क्या फायदा है हमारी एम० ऐ० (M. A.), एम० एस सी०(M. Sc.), पी०एच डी०(Phd.), यु० जी० सी०(UGC/CSIR NET) आदि का?"


मेरी पत्नि ने मेरे कुछ और पास आते हुए कहा,
"मुझे सच सच बताओ कि आज बैंक में क्या हुआ था?"


मैने अपने पर कुछ काबु किया । फिर बैंक में घटा सारा घटनाक्रम सुना दिया । पर उस को सुन कर मेरी पत्नि पर कोई असर नहीं हुआ ।

वो बोली,
"इस में आप क्यों नराज़ हुए बैठे हो? और वो जो उन के लोग बाहर गए हैं, वह वहां जाकर जाने कैसे कैसे काम करते हैं और तभी ऐसा पैसा कमाते हैं ।"

"नहीं", मैने अपनी अवाज़ को कुछ बुलन्द करते हुए कहा, "यह ऐसा नहीं है । उन का पराक्रम हम से ज्यादा है । उन में साहस है । हम अपनी डिगरियों का आडम्बर खडा कर के फज़ुल का गर्व करते हैं । हम उन के सामने कुछ नहीं । हम एक मध्य वर्गी व्यवस्था की पैदावार हैं । हम पक्की नौकरी एंव पक्की तनख्वाह के दास हैं । हमारी सुरक्षा की भावना असल में मध्यवर्गी कमज़ोरी हैं । कभी लाखों में नोट खर्च करके देखें हैं? नहीं न !! बस, वही पक्की तनख्वाह और मध्यवर्गी सोच !!"


"अच्छा अच्छा, शांत हो जाओ ।" यह कहते हुए वह खडी हुई । "मैने अभी बहुत काम करना है । आप भी अब उठो और नीचे चलो ।" युँ कहती हुई वह कमरे से बाहर चली गई ।

मैं एक दम चुप हो गया । पर दिमाग में वही शब्द फिर गुँजने लगे । "साडे काके ने तां सारे दरिद्र धो दीते ।"

अगर पँजाबी में कहुँ तो इस घटना ने "मेनु पदरा कर दिता" ।



(समाप्त)

Saturday, August 27, 2005

पँजाबी कविता

इक रुख लगाया है
जिस दे पत्ते
वक्त पैन ते
खङक्ण गे
तलवरां वान्ग


कवी: प्रेम अबोहरी
सौजन्य: ङा सुरिन्दर खन्ना


इस का हिन्दी रुप कुछ ऐसा होगा:

एक पेड लगाया है
जिस के पत्ते
वक्त पडने पर
तलवारोँ की झन्कार देंगे

यह एक क्रान्तिकारी कविता है । हाल ही में यह कविता हमारे कालॅज में सार्थक् हुई । प्रिन्सीपल स्त्री कर्मियों को कम्जोर जान कर मनमानी सी कर रहा था । परन्तु हाल ही में एक अधियापिका उस की हठधर्मि के विरुध अड गई । सभी सहकर्मि उस के साथ हो लिए । इससे पहले सभी निर्लज बास से लोहा लेने कतरा रहे थे । युनियन भी अब दम दिखाने लगी है । ऐसे में जब सहकर्मि ख्नन्ना ने इस कविता का वाचन किया तो यह बहुत सटीक टिप्पणी लगी ।

Tuesday, August 09, 2005

शायद कल तक मैं न रहुँ

शायद कल तक मैं न रहुँ


कह लेने दो मुझको कुछ
शायद कल तक मैं न रहुँ
यह एक एहसान तेरा होगा मुझ पर
अगर मैं कुछ कह
सकुँ


शायद कल तक मैं न रहुँ


मन को मार के जिए हम
मन की गुलामी भी की बहुत
पर पा न सके कुछ भी
इन दोनों के राज में
अब मुझे कुछ कह लेने दो



शायद कल तक मैं न रहुँ


रोते रहे
हम सारी उमर
हँसने की चाह में
अब जाकर कहीं
थम्‍मी है हिच‍की
कुछ अब मुसकराने दो



शायद कल तक मैं न रहुँ


गिड़गड़ाए तेरे सामने बहुत
हँसे तेरी छाया में बहुत
कोसा भी तुझको बहुत
फिर भी तुम बरसाते रहे
मुझ पर मुहोब्‍बत



अब मुझे सम्‍भाल ही लो
शायद अब मैं न रहुँ


Monday, August 08, 2005

ईख्‍लाख़ और चाहत में जगं

न पाल उन उमंगो को
जो खेल ज़माना न माने
ज़माना गल‍त ही सही बहुत
खुदा की चहात का पमाना है



क्‍यों चाहता है वो चाहतें
जिन्‍हे पाने पर पाबन्‍दी हो
ईख्‍लाख़ और चाहत में जद्दौजेहद
पा लेने में
और खो जाने में
इक जगं हो



वो कैसी मंज़िलें
जिन्‍हें पाने पर
छोड देने की चाहत हो
जिन्‍हें पा लेने में
कोई शक हो
जिन्‍हें पा लेने पर
कोई शुबाह हो




जिस्‍मानी खूबसुरती की तरफ
खींच तो हो
पर चाहत की पाकीज़गी पर
शक भी
अगर वो नहीं
तो वो तो है
अगर वो नहीं
तो शुबा कैसा
अगर ये नहीं
तो शक कैसा



उस अफ़साने को
बीच में छोड जाना अच्‍छा
जिस के इखतसाम पर
ईक नई टीस उठे





तेरे दिल की उमंगे
नायाब हैं
कोई सड़क की
धूल नहीं
इनमें सूरज की रिश्‍मों की
पाकीज़गी है
किसी शव में लगी
आग नहीं




चाहत तेरी गज़ब सी हसीन है
हर एक गुल के लिए ये नहीं
उठते फ़ाख्‍ता को भी मिलेगा आशियाना
बागबान सभी अभी उजड़े नहीं

Friday, August 05, 2005

ज़िन्‍दगी का नशा

ज़िन्‍दगी है एक नशा ।
इसे पीना आना चाहिए ।।
यह है वो हसीन बला
जिसे लुभाना आना चाहिए ।।



जब ज़ख्‍मों में टीस उठे
दवा दारू कर लिया करो ।
तन्‍दरुस्‍त शरीर है जब तक पास तुम्‍हारे
इस जहान को भोगना आना चाहिए ।।



जाने कितने नाम दर्ज़ हैं
इतिहास के पन्नो पर ।
लाशें पर वो खो चुकी हैं

ग‍र्द के उबारों में ।।
मर के क्‍या ले जायोगे इस जहान से ।
जीते जी नाम दाम कमाना आना चाहिए ।।




खुदा के रहते भी
खुशनसीब से बद्‍नसीब हो जाया करते हैं ।
बद्‍नसीब से खुशनसीब होने का
सलीका आना चाहिए ।।



पैदायश से मौत तक का
एक सफ़र है ।
ज़िन्‍दगी की बस इतनी सी सच्‍चाई है ।
महलों से मकबरों तक
बरात बन कर
आना जाना चाहिए ।।



नफ़रतों के दायरों में
जलन की आग जलाए रखने से
ठन्‍ढ़क नहीं मिलती कभी ।
मोकाप्रस्‍ति ही सही
दुश्‍मनों की महफ़िल में भी
आना जाना चाहिए ।।

Wednesday, August 03, 2005

खुदा पर शुबा क्‍यों

हुआ करे थी आसरा
जब खुदा की लौ ।
हर एक शख्‍स से
कुछ रिश्‍ता लगता था ।।



खुदा की ज़ात पर जो हुआ शुबा ।

आसमान से हट गई नज़र ।

अब हर एक कल

किसी खोफ का नाम है ।

किसी खोफ का पेगाम है ।

कभी तख्‍तो ताज ड़गमगाते हैं ।

कभी विरानों के सपने आते हैं ।।




पर शुबा हुआ क्‍यों

मुझे यह तो बता?


जब किया था खुदा पर एतबार

अपने ही होंसले पर क्‍यों शुबा हुआ ?



अगर बुत में बसता नहीं खुदा

जिस्‍म भी तो ख़ाक में मिलेगा ।

ख़ाक में तुँ उसे मिलेगा

या तुझको मिलेगा खुदा ।।



पर शुबा हुआ क्‍यों

मुझे यह तो बता?


एक एहसास है

जिससे ॑मैं ॑ बना ।

खुदा भी है

उस एहसास का जना ।।

या तो अपने एहसास पर कर एतबार

या फिर ये बेएतबारी छोड़ दे ।।



बुत में जो नहीं खुदा

खाक में तो भी मिलेगा तुँ ।

जो तेरी ख़ाक का बुत बना

क्‍या उस बुत में मिलेगा तुँ ?



______

मैं प्रतीक का धन्‍यवाद करता हुँ आप ने सही त्रुटी पहचानी । शब्‍द शुबा है शुभा नहीं जैसा मैने लिखा था । मैने त्रुटी सुधार ली है ।

Tuesday, August 02, 2005

सहकना बन्‍द कर पाऐं

लोग बताऐं हैं सुन कर हम को
कि यह अपने दर्द की मारफ्‍त बोलता है ।
ज़ख्‍मों से हमारे अपने तीर तो निकालो
जो यह रिसना बन्‍द कर पाऐं
और हम सहकना बन्‍द कर पाऐं ।।

Sunday, July 31, 2005

कैसे करे भोगी प्‍यार

बीती यादों के सग्रंह को मन कहुँ ।
इन्द्रियों के उपासक को तन कहुँ ।।
मायाजाल की गहरी चाल को ।
मैं मन्‍दबुद्धि क्‍यों ना सच कहुँ ।।


क्‍यों के


अगर यह बोध हो गया
संसार का है नहीं अकार ।
मन्‍दिर में स्‍थित मुर्ति से
फिर कैसे करे भोगी प्‍यार ।।

Saturday, July 30, 2005

बिछड़ा हुआ हुँ

६।४।१९९६


अपने जब आस पास थे
तब भी यही बात थी
दूर हो लिया हुँ सब से
अब भी वही आलम है
जाने किस से बिछड़ा हुआ हुँ
जाने किसने मिलने आना है





हर इक पल
इन्‍तज़ार का दर्द
हर इक पल
जुदाई की कस्‍क
आ लेने दे
पास अपने
इस से पहले कि
तुँ भूल जाए मुझे





इतनी कायनात
बिखेर रखी है
क्‍या याद है
तुझे मेरी भी
आलेने दे पास अपने


रो कर पुकारूँ तुझे यां
यादों में बसाऊँ
साज उठालुँ यां
शब्‍दों में सजाऊँ
तस्‍वीरें बनादूँ यां
ठोस पत्‍थर तराशुँ
बोल तो सही
मैं क्‍या हो जाऊँ
आलेने दे पास अपने



नज़रों से देखुँ तुझे
हाथों से छु लुँ
सांसो में महक हो
तेरे होने की
होंटों पर मेरे
तेरे होंटों की
लज्‍ज़त लिपटे
आगोश में मेरे
तेरे दामन की हरारत
कानों में मेरे
तेरे सिमटने की सरसराहट
ज़बान पर मेरे
बस तेरा ही नाम
आलेने दे पास अपने


तुझ से ही बिछड़ा हुआ हुँ
तुने ही मिलने आना है
तुझ से जुदाई का ही
यह आलम है
आजा तुँ पास अब
इस से पहले कि
तुँ भूल जाए मुझे




___
लक्ष्मीनारायण गुप्त ने ऐसे ही भावों को अपनी कविता कौन है वह में विशुध्‍द हिन्‍दी में लिखा है । उन की अपनी शैली है ।

एक दास्‍तान हो गई

१८.०१.०५

अगर बरबादी ही है अन्‍जाम मेरा
तो देखे खुदाई ताहेयात तक
जो हम भी सीना तान कर
चलते जाऐंगे ।।




खुदा खुदा रहा ।
और यह सब हो गया ।
वाह क्‍या खुदा है ।।


अल्‍ला ईश ईसा में तकरार हुई ।
दुरग्‍गत इन्‍सान की हुई ।
तवारीख में यूँ ही
एक दास्‍तान हो गई ।।




ऊपर दिए गए तीन आषारों में बाद के आषार शुनामी की तबाही देखने के बाद लिखे गए थे । तीसरा आषार ऐजुकेशन फोरम में लिखे गए एक निबन्‍ध पर है I उस निबन्‍ध में मा‍र्टिन कैटल ने शुनामी को मुसलमानों एंव हिन्‍दुयों पर परमात्‍मा की मार बताया था I दुसरे यरोपिए लेखकों ने उस लेख की निन्‍दा की थी I मेरी यह रचना उस पर प्रतििक्रया थी जिसे मैं यहां प्रकाशित कर रहां हुँ I

Wednesday, July 27, 2005

अंतरिक्ष से ख़बर

अंतरिक्ष में यह खबर गर्म है ।

कि पृथ्‍वी का अकाश लाल हो गया है ।

धरती का रंग पीला हो गया है ।

नदियों में तेज़ाब बहता है ।

पेडों के नाम पर काले ठुंठ घड़े हैं ।

मानव पुर्जे सरपट भाग रहें हैं ।

अब वहां एक प्रयोगशाला खोली जाएगी ।

हे राम

रात के गहन अन्‍धेरे में

घबराई हुई एक अबला

खुद में सिमटी हुई

इधर उधर देखे

ड़री ड़री सी

बे-तरन्‍नुम सांसे

सम्‍भालती हुई सी

शायद चाहती हो होंसला

हर एक कण से

क्‍या हर एक कण में

तुम हो हे राम

Monday, July 18, 2005

ख्‍वाबों का बज़ार

२५-०६-२००५

ख्‍वाबों का एक बज़ार लगा था ।
हर मुम्किन ख्वाब सजा था ।
हर एक ख्वाब मुफ्त ।।




हम ने बज़ार का दौरा किया ।
अखिर में हम पर यह नषर किया गया ।
कोई भी एक ख्वाब लेलो
और वह साकार होगा ।।



हम ने फिर बाज़ार का दौरा किया ।
हर एक ख्वाब पर फिर से नज़र दौडाई ।
हर एक ख्‍वाब को देखा जाना ।
अब तक इस पषोपेश में हैँ
कि किस ख्वाब को चुने ।।



ऐसे में ज़िन्दगी खत्म होने को आई ।

खुदा खुदा हो गया

जब खुदा से चाहा




तब खुदा को चाहा,



युँ खुदा खुदा हो गया



यह पोस्ट पहले भी प्रकशित की गइ है यहाँ पर युनिकोटॅ अधारित प्रकाशन किया गया है

Sunday, July 17, 2005

धन्‍यवाद

देबाशीष, अनुराग और अनुनाद का धन्‍यावाद । देबाशीष वह पहले व्‍यक्‍ति थे जिन्‍होने मेरे ब्‍लाग की त्रुटियों को मुझे बतलायला। उन्‍होने मुझे मुझे समाधान भी दिए पर मैं उन्‍हें समझ नहीं पाया था । इस पर भी उन्‍होने मेरा साथ नहीं छोडा था ।
मेरे हर सन्‍देश का उत्तर दिया । लगता है कि कन्‍ही वह मुझे भूल भी गए थे । पर जब मैंने सम्‍पर्क किया तो उन्‍होंने वारतालाप बनाए रखा ।

अनुनाद का भी धन्‍यवाद करता हुँ । उन्‍होंने भी मेरे सन्‍देश का
उत्तर दिया ।अनुराग के उत्तरों से ज्‍यादा लाभान्‍वित हुँआ हुँ ।
वैसे तो देबाशीष ने भी समाधान दे दिया था ।
परन्‍तु अनुराग के ही ब्‍लाग से मैंने उन लिक्‍कों का
प्रयोग किया जिससे मैं अपना प्रकाशन युनिकोड में कर पाया ।
मैं आशा करता हुँ कि अब मेरा ब्‍लाग पढा जा सकता है ।

Saturday, July 16, 2005

काश ऐसा हो जाए

कभी इस बुत को
कभी उस बुत को
फर्याद करते हैं
काश दर्द सुने जो
ऐसा एक इन्‍सान मिल जाए



इस सडक जाते हैं
उस सडक जातॆ हैं
काश कही पर
मंजिल का निशान मिल जाए



यह सोगात ख़रीदते हैं
वो सोगात ख़रीदते हैं
दिल को सकुन मिले
काश एसा समान मिल जाए



ज़माना हो गया है
ज़माने से बात किए हुए
काश किसी महफिल से
शिरक्‍त का पैगाम मिल जाए

Thursday, July 14, 2005

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Tuesday, June 28, 2005

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yo fues’k ega ekfj fxjk;mAA


vki tya/kj vlqj lagkjkA
lq;"k rqEgkj fofnr lalkjkAA


f=iqjklqj lu ;q) epkbZA
lcfga d`ik dfj yhu cpkbZAA


fd;k rifga HkkxhjFk HkkjhA
iqjo izfrKk rklq iqjkjhAA


nkfuu ega rqe le dksbZ ukghaA
lsod Lrqfr djr lnkghaAA


osn ekfg efgek rc xkbZA
vdFk vukfn Hksn ufga ikbZAA


izdVh mnf/k eFku rs TokykA
tjr lqjklqj Hk, fogkykAA


dhUg n;k rag djh lgkbZA
uhydaB rc uke dgkbZAA


iwtu jkepUnz tc dhUgkA
thr ds yad oHkh’k.k nhUgkAA


lgl dey esa gks jgs /kkjhA
dhUg ijh{kk rcgha iqjkjhAA



,d dey izHkq jk[ksm xksbZA
dey uSu iwtu pga lksbZAA


dfBu HkfDr ns[kh izHkq 'kadjA
Hk;s izlUu fn;s bfPNr ojAA



t; t; t; vuUr vfouk'khA
djr d`ik lcds ?kVoklhAA


nq’V ldy fur eksfg lrkosaA
Hkzer jgkSa eksfg pSu o vkoSAA


=kfg =kfg eSa ukFk iqdkjkSaA
;fg volj eksfg vku mckjkSAA



ys f='kwy 'k=qu dks ekjksA
ladV rs eksfg vku mckjksAA



ekr&firk Hkzkrk lc gksbZA
ladV esa iqNr ufga dksbZAA



Lokeh ,d gS vkl rqEgkjhA
vk; gjgq ee ladV HkkjhAA


/ku fu/Zku dks nsr lnkghaA
tks dksbZ tkaps lks Qy ikghaAA


vLrqrh dsfg fof/k djkSa rqEgkjhA
{kegq ukFk vc pwd gekjhAA


'kadj dks ladV ds uk"kuA
fo?u fouk'ku eaxy dkjuAA



;ksxh ;fr eqfu /;ku yxkosaA
ukjn lkjn 'kh'k uokosaAA



ueksa ueksa t; ue% f'kok;A
lqj czãkfnd ikj u ik;AA


tks ;g ikB djs eu ykbZA
rk ij gksr gSa "kEHkq lgkbZZAA



_fu;ka tks dksb gks vf/kdkjhA
ikB djs lks ikougkjhAA



iq= gksu dj bPNk dksbZA
fu'p; f"ko izlkn rsfg gksbZAA



if.Mr =;ksn"kh dks ykoSA
/;ku iwoZd gkse djkoSAA



=;ksn"kh ozr djS ges"kkA
ru ufga rkds jgS dys"kkAA



tUe tUe ds iki ulkoSA
vUr /kke f"koiqjh esa ikoSAA


dgr v;ks/;k vkl rqEgkjhA
tkfu ldy nq%[k gjgq gekjhAA


fuR; use dj izkr% ghA
ikB djks pkyhlA
rqe esjh euksdkeuk]
iw.Zk djks txnhlAA


eaxlj NfB gseUr _rq]
laor~ pkSlB tkuA
vLrqfr pkyhlk f"kofga]
iq.Zk dhu dY;k.kAA


Sunday, June 26, 2005

Dadfj;k¡ ,d


1&11&90


viuh gh etcqjh

vk¡lq tks ncs iM+s Fks
viuh gh etcqjh ds dkj.k
vxj t+[e fn, gksrs fdlh vkSj us
cn~gokl gq, ;g cg tkrsAA

&&

1&11&91

udke;kfc;ka

udke;kfc;ka viuh [kqn dh esgur
NqV x, tks jkLrs] viuk gh nks'k FkkA
ij [kqn dks /kks[kk nsuk vPNk yxrk gS
jkLrs esa vkus okys iRFkj ij
;q¡ rksgEer yxkuk vPNk yxrk gSAA

Saturday, June 25, 2005

[okcksa dk ct+kj

25&06&2005


[okcksa dk ct+kj


[okcksa dk ,d ct+kj yxk FkkA
gj eqfEdu [okc ltk FkkA
gj ,d [okc eq¶rA


ge us ct+kj dk nkSjk fd;kA
vf[kj esa ge ij ;g u’kj fd;k x;kA
dksbZ Hkh ,d [okc ysyks vkSj og lkdkj gksxkA

ge us fQj ct+kj dk nkSjk fda;kA
gj ,d [okc ij fQj ls ut+j nkSM+kbZA
vc rd bl i"kksis"k esa gSa fd fdl [okc dks pqusA


,sls esa ftUnxh [kRe gksus dks gks vkbZ gSA

Friday, June 24, 2005

ftUnxh dk u'kk

11&93

ftUnxh dk u'kk

ftUnxh gS ,d ,slk u'kk
bls ihuk vkuk pkfg,
;g gS oks glhu cyk
ftls yqHkkuk vkuk pkfg,AA


tc t+[eksa esa Vhl mBs
nok nk: dj fy;k djks
rUn:Lr 'kjhj gS tc rd ikl rqEgkjs
bl tgku dks Hkksxuk vkuk pkfg,AA


tkus fdrus uke ntZ+ gSa
bfrgkl ds iUuksa ij
yk'ksa ij oks [kks pqdha gS
xnZ ds mckjksa esa
ej ds D;k ys tkvksxs bl tgku ls
thsrs th uke nke dekuk vkuk pkfg,AA

[kqnk ds jgrs Hkh
[kq'kulhc ls cn~ulhc gks tk;k djrs gSa
cn~ulhc ls [kq'kulhc gksus dk lyhdk vkuk pkfg,AA

isnk;'k ls ekSr rd dk ,d lQ+j gS
ft+Unxh dh cl bruh lh lPpkbZ gSA
egyksa ls edcjksa rd cjkr cu dj tkuk vkuk pkfg,AA

uQjrksa ds nk;jksa esa
tyu dh vkx tyk, j[kus ls
fny dks M+U<+d ugha feyrh dHkhA
eksdkijfLr gh lgh
nq'euks dh egfQy esa tkuk vkuk pkfg,AA


&&

11&93

tUur dh [okbZ'k D;k cuk Mkyh
bl tgku esa jgus ij rq>ls nwj gks x,AA

dSls djs Hkksxh I;kj


1982

dSls djs Hkksxh I;kj


chrh ;knksa ds laxzg dks eu dgq¡
bfUnz;ksa ds mikld dks ru dgq¡
ek;k tky dh xSgjh pky dks
eSa eUncqf) D;ksa u lp dg¡q



D;ksa ds


vxj ;g cks/k gks x;k
lalkj dk gS ugha vdkj
efUnj esa fLFkr eqÉr ls
fQj dSls djs Hkksfx I;kj

Sunday, June 19, 2005

[kqnk ij 'kqHkk D;ksa\

3&92



[kqnk ij 'kqHkk D;ksa\


gqvk djs Fkh vkljk
tc [kqnk dh ykS
gj bd 'k[l ls
dqN fj'rk yxrk FkkA



[kqnk dh t+kr ij gqvk tks 'kqck
vkleku ls gV xbZ ut+j
vc gj bd dy
fdlh [kksQ+ dk uke gS
fdlh [kk+sQ+ dk isxke gS
dHkh r[rks rkt M+xekrs gSa
dHkh fojkuksa ds lius vkrs gSaA



ij 'kqHkk gqvk D;ksa\

eq>s rks le>kA

tc fd;k Fkk [qknk ij ,rckj
vius gh gkaslys ij D;ksa 'kqck gqvk


vxj cqr esa clrk ugha gS [kqnk
ftLe Hkh rks [kkd esa feysxk
[kkd esa rq¡ mls feysxk
;k rq>dks feysxk [kqnk



ij 'kqHkk gqvk D;kss\

eq>s rks le>kA


,d ,glkl gS
ftlls ^eSa^ cuk
[kqnk Hkh gS
ml ,glkl dk tuk
;k rks vius ,glkl ij dj ,rckj
;k fQj ;g cs,srckjh NksM+ ns


cqr esa tks ugha [kqnk
[kkd esa rks Hkh feysxk rq¡
tks rsjh [kkd dk cqr cuk
D;k ml cqr esa feysxk rq¡

lqehj ;q¡gh

Saturday, June 18, 2005

fcNM+k gqvk g¡q 7

6&4&1996



vius tc vkl&ikl Fks
rc Hkh ;gh ckr Fkh
nwj gks fy;k g¡q lc ls
vc Hkh ogh vkye gSA
tkus fdl ls fcNM+k gqvka g¡q
tkus fdl us feyus vkuk gSA



gj ,d iy
bUrt+kj dk nnZ
gj ,d iy
tqnkbZ dh dLd
vk ysus ns
ikl vius
bl ls isgys fd
r¡q Hkwy tk, eq>s




bruh dk;ukr
fc[ksj j[kh gS
D;k ;kn gS
rq>s esjh Hkh
vkysus ns ikl vius




jks dj iqdk:¡ rq>s
;k ;knksa esa clkš
lkt+ mBky¡q ;k
'kCnksa esa ltkš
rLohjsa cuk n¡w ;k
Bksl iRFkj rjk'k¡q
cksy rks lgh
eSa D;k gks tkš
vkysus ns ikl vius



ut+jksa ls ns[k¡q rq>s
gkFkksa ls N¡q y¡aq
lkalksa esa egd gks
rsjs gksus dh
gksaBksa ij esjs
rsjs gksaBksa dh
yTt+r fyiVs
vkxks'k esjs
rsjs nkeu dh gjkjr
dkuksa esa esjs
rsjs fleVus ljljkgV
t+cku ij esjs
cl rsjk gh uke
vkysus ns ikl vius



rq> ls fcNM+k gqvk g¡q
rqus gh feyus vkuk gS
rq> ls tqnkbZ dk gh
;g vkye gS
vk tk r¡q ikl vc
bl ls igys fd
r¡q Hkwy tk, eq>s




lqehj ;¡qgh

[kqnk [kqnk gks x;k


tc [kqnk ls pkgk

rc [kqnk dks pkgk

;¡q [kqnk [kqnk gks x;k

'kk;n dy rd eSa u jg¡q

1982 ls 1983



'kk;n dy rd eSa u jg¡q



dg ysus nks eq>dks dqN
'kk;n dy rd eSa u jg¡q
;g bd ,glku rsjk gksxk eq> ij
vxj eSa dqN dg ld¡q






'kk;n dy rd eSa u jg¡q




eu dks ekj ds th, ge
eu dh xqykeh Hkh dh cgqr
ij ik u lds dqN Hkh
bu nksuks ds jkt esa
vc eq>s dqN dg ysus nks





'kk;n dy rd eSa u jg¡q




jksrs jgs
ge lkjh mej
g¡lus dh pkg esa
vc tkdj
dgha FkEEkh gS fgpdh
dqN vc eqldjkus nks





'kk;n dy rd eSa u jg¡q





fxM+xM+k, rsjs lkeus cgqr
g¡ls rsjh Nk;k esa cgqr
dkslk Hkh rq> dks cgqr
fQj Hkh rqe cjlkrs jgs
eq> ij eqgksCcr




vc eq>s lEHkky gh yks
'kk;n vc eSa u jg¡q


&&amp;&&&&&&&&&


gj ne ;gh jgrk gS [;ky eq>s
eSa ft+Unk g¡q ;k eqnZk


gs jke

1&01&87
7&29 lk;adky



?kcjkbZ gqbZ ,d vcyk
[kqn esa flEeVh gqbZ
b/kj m/kj ns[ks M+jh lh
cs&rjUuqe lh lkals lEHkkyrh
'kk;n pkgrh gks gksalyk
gj bd d.k ls
D;k gj bd d.k esa
rqe gks gs jke

Friday, June 17, 2005

bd nkLrku gks xbZ

18-01-05


vxj cjcknh gh gS vat+ke esjk
rks ns[ks [kqnkbZ rkgs;kr rd
tks ge Hkh lhuk rku dj
pyrs tk,saxsAA




[kqnk [kqnk jgk
vkSj ;g lc gks x;k
okg D;k [kqnk gSAA



vYykg bZ'k bZlk esa rdjkj gqbZ
nqjXr bUlku dh gqbZ
rokjh[k esa ;q¡ gh
bd nkLrku gks xbZAA




lqehj

nkoksa dks djus dh txg dqN lkjFkd rks fd;k

,slk yxrk gS fd esjk dke c<+ x;kA esjh fgUnh dh Vkbi cgqr gh /kheh gSA fgUnh fy[ks dks Hkh dkfQ le; gks x;k gSaA vWxzst+h ij bruk vkf_r gks x;k gqW fd Hkko dks izdV djus ds fy, vWxzst+h 'kCn lkeus vkrs gS vksSj fgUnh esa gkFk rax yxrk gSA

fQj Hkh vusd nkoksa dks djus dh txg dqN lkjFkd rks fd;kA “kCnksa esa Hkh rzqVh yxrh gSA fgUnh fy[ks gq, le; cgqr gks x;k gSA oSls esjh cksyh esa mnqZ ds “kCn gkfp jgrs gSA

eSa dqN fy[krk gqW vkSj fQj ns[krk gqW fd og dSlk fn[krk gSA fn[krk gSA

eSa dqN fy[krk gqW vkSj fQj ns[krk gqW fd og dSlk fn[krk gSA

Musafiroon ki gintee