Monday, August 08, 2005

ईख्‍लाख़ और चाहत में जगं

न पाल उन उमंगो को
जो खेल ज़माना न माने
ज़माना गल‍त ही सही बहुत
खुदा की चहात का पमाना है



क्‍यों चाहता है वो चाहतें
जिन्‍हे पाने पर पाबन्‍दी हो
ईख्‍लाख़ और चाहत में जद्दौजेहद
पा लेने में
और खो जाने में
इक जगं हो



वो कैसी मंज़िलें
जिन्‍हें पाने पर
छोड देने की चाहत हो
जिन्‍हें पा लेने में
कोई शक हो
जिन्‍हें पा लेने पर
कोई शुबाह हो




जिस्‍मानी खूबसुरती की तरफ
खींच तो हो
पर चाहत की पाकीज़गी पर
शक भी
अगर वो नहीं
तो वो तो है
अगर वो नहीं
तो शुबा कैसा
अगर ये नहीं
तो शक कैसा



उस अफ़साने को
बीच में छोड जाना अच्‍छा
जिस के इखतसाम पर
ईक नई टीस उठे





तेरे दिल की उमंगे
नायाब हैं
कोई सड़क की
धूल नहीं
इनमें सूरज की रिश्‍मों की
पाकीज़गी है
किसी शव में लगी
आग नहीं




चाहत तेरी गज़ब सी हसीन है
हर एक गुल के लिए ये नहीं
उठते फ़ाख्‍ता को भी मिलेगा आशियाना
बागबान सभी अभी उजड़े नहीं

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