Sunday, October 30, 2005

विलय की नीति के मुख्य कर्त्ताधर्ता

आर० सी० मजुमदार ने British Paramountancy में Doctrine of Lapse पर जिस बात का खुलासा किया है वह यह है कि इस सिद्धान्त को पूरी तरह डलहोज़ी पर मडना ठीक नहीं होगा । इस सिद्धान्त को लागु करने पर जो बात मुख्य रुप से घटित हो रही थी वो यह थी कि कम्पनी का सीमा क्षेत्र बड रहा था । भारतिय राज्यों को बङी तेजी से नष्ट कर के उन के क्षेत्रों को कम्पनी राज का क्षेत्र घोषित किया जा रहा था ।


अब प्रश्न यह उठता है कि अगर कम्पनी का क्षेत्र बङ रहा था तो इस से डल्होज़ी को कोई खास फायदा हो रहा था या फिर हर हाल में कम्पनी को तो फायदा हो ही रहा था ।


यहां पर एक बात पर ध्यान देना ज़रुरी है और वह यह है कि यह सिद्धान्त १८५० में लागु हुआ और उस समय तक कम्पनी पुरी तरह पिट चुकी थी । कम्पनी घाटे पर जा रही थी । हिस्सेदारों को काफि समय से लाभान्श नहीं मिल रहा था । कम्पनी का कई व्यापारिक क्षेत्रों पर एकाधिकार खत्म हो चुका था । यहां तक कि कम्पनी के पास कोई एकाधिकार रह ही नहीं गया था । कम्पनी के मुकाबले में कई बरतानवी व्यापरी व्यापार कर रहे थे । १८५३ में चार्टर एक्ट में यह स्पष्ट व्यवस्था कर दी गई थी कि कम्पनी अपने कर्जदारों को जल्द से जल्द अदायगी करेगी एंव कम्पनी को बन्द करने की प्रक्रिया की शरुआत की जाऐगी । यहां तक की चार्टर में यह तक भी अकिंत नहीं किया गया था कि कम्पनी को और कितने सालों तक बने रहने कि अनुमति दी गई थी ।


इन सब बातों को ध्यान में रख कर अगर इस तथ्य की समीक्षा की जाए कि कम्पनी धङा धङ अपने क्षेत्र बढाए जा रही थी तो यह प्रशन सभाविक हि उठ खङा होता है कि वह ऐसा किस लिए कर रही थी । इस बात को दूसरे शब्दों में भी पूछा जा सकता कि ऐसे हालातों में डल्होज़ी को क्या ज़रुरत पङी थी कि वह कम्पनी का क्षेत्रफल बढाए जा रहा था जब कि कम्पनी को बन्द करने के स्पष्ट संकेत आरहे थे । यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि वो जिस भी क्षेत्र का विलय करता था उस की मन्जुरी उसे बोर्ड आँफ ड्रायक्टर्स से लेनी पङती थी और उसे वह मन्जुरी असानी से मिल भी जाती थी ।


इन सारी बातों की समीक्षा करते हुए मजुमदार यह तर्क देता है कि विलय की नीति डल्होज़ी पर नहीं मङी जानी चाहिए । यह ठीक है कि यह सारा काम डल्होज़ी के हाथों हुआ और डल्होज़ी ने भी कोई कसर नहीं छोडी । उस ने तो बडी शान से हर एक विलय को अपने नाम पर गङते हुए इस बात का गर्व किया कि उस ने यह सब किया । मजुमदार ने स्पष्ट किया है कि उस के इस खेल में बोर्ड आँफ कन्ट्रोल पूरा पूरा भागिदार था । बोर्ड आँफ कन्ट्रोल के ही ईशारे पर डल्होज़ी यह हौंसला कर सका । क्योंकि बोर्ड आँफ कन्ट्रोल का ईशारा था तो हि बोर्ड आँफ ड्रायक्टर्स से मन्जुरी मिलती गई । ड्रायक्टर्स तो यह जानते थे कि अब उन की कम्पनी तो रद्ध होने वाली है और जो कुछ भी कम्पनी हिन्दुस्तान में बनाए बैठी है उस सब की जिम्मेवारी ब्रिटिश सरकार ही ले सकती है एंव लेने वाली है क्योंकि कम्पनी तो बुरी तरह पिट चुकी थी । अगर सरकार कि ओर से ईशारा है तो उन्हें क्या दिक्कत हो सकती थी । और ऐसा हि हो रहा था ।


अतः विलय की नीति के कर्त्ताधर्त्ता ब्रिटिश सरकार खुद हि थी । कम्पनी या डल्होज़ी का नाम तो अपने पाप छुपाने के लिए किया गया एंव अपने कार्य को न्यायिक दिखाने के लिए किया गया ।


विलय की नीति के मुख्य कर्त्ताधर्ता

Sunday, October 23, 2005

लैप्स का सिद्धान्त - १८५७ के गदर का कारण: एक नया पक्ष:-

लैप्स का सिद्धान्त १८५७ के विद्रोह का कारण तो था हि पर इस सिद्धन्त को लागु करते समय जो कार्यवाई की जाती थी । वह इस सिद्धान्त के विरुद्ध विद्रोह का ज्यादा प्रभावकारी क़ारण बनी यह एक ऐसा पक्ष है जिन्हें किताबों में ज्यादा उजागर नहीं किया गया है ।

लैप्स के सिद्धान्त के अधार पर अंग्रेजों ने नागपुर को अपने कब्जे में कर लिया था । इस के बाद उन्होंने भोंसले परिवार की सम्पति जब्त कर के उसे बेचने का प्रोग्राम बनाया । महल के पशु, घोडे एंव हाथी नागपुर के पास जानवर मण्डी में ओनेपोने दामों में बेच दिए गए । महल के जेवराहत कौलकत्ता में निलामी के लिए भेज दिए गए । वहां निलामी इस प्रकार से करवाई गई कि वहां अभुषण कम दामों में बिके । इस के बाद महल का फर्निचर बेचने का प्रोग्राम बनाया गया । यह सारी गतिविधियां भौंसले परिवार के लिए अति अपमानजनक थीं । महल की वृध राजरानियां बहुत क्षुब्ध एंव भडकी हुईं थीं । इस से जनता जिन के मन में राजमहिल की वृध महिलायों के लिए बहुत आदर था, वह भी भडक उठे । उन का यह अन्जाम दुसरे राज परिवार वाले भी देख रहे थे । उन्हें भौंसले परिवार की रानियों की अपमानजनक स्थिति में अपने से भविष्य में हो सकने वाली दुरदशा की झलक दिखाई दे रही थी ।

लैप्स का सिद्धान्त तो एक कानुनी मुद्दा था यह सिद्धान्त तो विद्रोह का कारण बना ही बना पर इस के साथ जो लूटखसोट प्रशासनिक पर उपयोगवहिन एंव अन्यायिक कार्यवाइयां की गई वह खुद में विद्रोह भडकाने के लिए काफि थीं । इस बात को आर० सी० मजुमदार ने सफलता पूर्वक उजागर किया है परन्तु प्रचलित इतिहास की किताबों में इस बात को अच्छे से उभारा नहीं गया है ।

Monday, October 10, 2005

Hindi Granth Karyalay: Munshi Premchand : A brief life sketch

Hindi Granth Karyalay: Munshi Premchand : A brief life sketch


कृप्या sumir-history blog की कडी को भी देखे रमण कौल ने १०६ कहानिया HTML मे प्रेक्षित करी हॅ


The essay is by Hindi Granth Karyalaya and Publisher of Mumbai. It is about the life sketch of Munshi Prem Chand. However, the essay covers all the works of Munshi Prem Chand and there are further links to the discussion groups on which the information on Munshi Prem Chand can accessed.

I understand that it was Shashi Singh who has made posting on Munshi Prem Chand and a related news on the Literary genius of Hindi on BBC.

However, in the essay, most of the works of Munshi Prem Chand has been given. In addition to that the blogger has many other postings concerning Hindi literature and literary world. It seems to be work of a publishing house using blog as a advertising medium but it is just a view.

I apologise to the world of Hindi bloggers for writing this very post in English. I just found the content matter quite relevant for the Hindi blog world, therefore, just in good faith, I am posting it. I have seen many more postings on Munshi Prem Chand. They claim to have written the original post. But on this post, I have found some authenticity. The blogger is quoting the sources or the books and their prizes and their availability. The other posts seems have borrowed to the level of plagiarism. Well it is quite rampant on the net. In many entries on Indian History I have found the same wordings but published on different web sites without giving any reference to their source.

I have in no way abandoned my Hindi writing. It has just started after a long time and I am here to say. Just bear with me for this post.

Thanks



नीचे दी गयी कड़ी से मुंशी प्रेमचंद के जीवन लेख को पड़ा जा सकता है.
Biography of Munshi Premchand in Hindi
 The above link is provided to facilitate the request of an anonymous reader who commented in the comment section. (14/02/2010).

In addition to that one can also check the following link for views on naming the writer:
Munshi Prem Chand, Upniyas Smrat.



Sunday, October 02, 2005

A Response to Shri Laxmi. N. Gupta


A Response to Shri Laxmi. N. Gupta

I here intend to bring out in open a response to a poem of Shri Laxmi. N. Gupta titled सम्राट और भिखारी.

I have passed some remarks which refers to the blog world. I have my views on the above mentioned comments. I have placed those comments in the comment option of Shri Gupta. However, I feel that it should be placed in open as a post to invite and involve other Hindi bloggers on the issue of Hindu ethics also.

My answer follows:

गुप्ता जी,
इस में कोई शक नहीं कि कविता बहुत ही रोचक है मैने इसे सुन्दर नहीं कहा
यह बात अब ब्लॉग जगत के दिग्गज भी मन ही मन मान रहे होंगे की विचारों को कविता में आप सहज ही पिरो लेते है आप यह काम बङी दक्षता से करते हैं अगर अरस्तु के विचारों का सहारा लुँ तो कविता ही चेतन मन एंव इतिहास बोद्ध का उच्चत्म रुप है तुलसीदास ने भी रमायण के अयोध्या काण्ड के मंगलाचार में कविता को बोद्धिक क्षमता पर दैवी प्रभाव एंव प्रताप बताया है


परन्तु मैं आप की कविता में दर्शाए दर्शन से सहमत नहीं हुँ

देखिए अगर चाहत न होती
तो द्वन्द न होता
द्वन्द न होता तो होता संघर्ष न होता
संघर्ष न होता तो प्रयत्न न होता
प्रयत्न न होता तो उसार न होता

अगर उसार नहीं है, प्रगती नहीं है तो जीवन अर्थहीन हो जाएगा
भविष्य में मोक्ष की सम्भावना नहीं रहेगी शायद Weber भी इसी बात से अचम्भित था कि भारतिय कर्म सिद्धान्त Protestant ethics के समान होते हुए भी वह socio-economic result नहीं दिखा पाया जो Protestant ethics ने western Europe में दिखाएं हैं

ज़रुरत है तो चाहत में शुद्धता लाने की प्राप्ति के माध्यम को चुनने की

Musafiroon ki gintee