Saturday, July 16, 2005

काश ऐसा हो जाए

कभी इस बुत को
कभी उस बुत को
फर्याद करते हैं
काश दर्द सुने जो
ऐसा एक इन्‍सान मिल जाए



इस सडक जाते हैं
उस सडक जातॆ हैं
काश कही पर
मंजिल का निशान मिल जाए



यह सोगात ख़रीदते हैं
वो सोगात ख़रीदते हैं
दिल को सकुन मिले
काश एसा समान मिल जाए



ज़माना हो गया है
ज़माने से बात किए हुए
काश किसी महफिल से
शिरक्‍त का पैगाम मिल जाए

1 comment:

  1. पैगाम की दरकार तो तो गैरों की महफिल में होती है
    थे अपने बहुत फिर भी महफिल मेरी वीरान रह गई

    ReplyDelete

Musafiroon ki gintee