मुझे फगवाडे वाली घटना भूलती नहीं है । रह रह कर याद आ ही जाती है ।
जन्म से तो मैं ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ हुँ । कहीं पर ब्राह्मण होने की श्रेष्ठता दिमाग में घुसी हुई है । और इस के साथ अपनी पढ़ाई के गर्व का बुखार ऎसा है कि किसी कम पढ़े लिखे को हम से बात करने के काबिल ही नहीं मानते । मानवतवाद एंव समानता की बातें तो करता हुँ पर जातिभेदभाव कहीं न कहीं व्यक्तित्व एंव सोच पर जड़े हुए हैं ।
पर उस दिन तो मैने किसी पक्के बनिए को भी मात कर दिया था । हुआ युँ कि मेरी पत्नी फगवाड़े में एक स्कूल अध्यापिका है । मेरे कहने पर वो अपना वेतन चैक के रूप में ही लेती है । उस चैक का भुगतान फगवाड़े में स्थित बैंक में ही होता है ।
हम फगवाड़े से लगभग २२ किलोमिटर दूर फिलौर नामक कस्बे में रहते हैं । मैं खुद फिलौर से १७ किलोमिटर दूर पंजाब के मुख्य शहर लुधियाना (Ludhiana) में लैक्चरार (Lecturer) हुँ । बेश्क मैं मात्र एक लैक्चरार हुँ पर हम खुद को प्रोफैसर कहलाने में बहुत गर्व महसुस करते हैं । वैसे यह भेद की बात है कि ऎसा कहलाने का हमें कोइ हक नहीं है ।
लुधियाना एक बड़ा शहर है । एक बड़े शहर की सहुलतें भी वहां मिलती हैं । सभी प्रकार के बैंक वहां पर हैं और उन में ऐ॰टी॰एम (A. T. M) की सुविधा भी है । ऐ॰टी॰एम की सुविधा को मैं बहुत महत्तवपूर्ण समझता हुँ ।
फगवाड़ा एक छोटा शहर है । यह शहर पंजाब के दुयाबा (Doaba) या जलन्धर बिस्त दुयाब (Jalandhar Bist Doab) में पड़ता है । जानकार यह जानते होंगे कि पंजाब का यह क्षेत्र वैसे तो कृषि प्रधान क्षेत्र है परन्तु यह प्रवासी भारतियों, विदेशों में रहने वाले पंजाबियों के लिए एंव वदेशों से धन पंजाब में लाने वालों के लिए ज्यादा जाना जाता है । मुलतः पंजाब का यह क्षेत्र धनी लोगों का क्षेत्र है । यहां के बैंक अपने ग्राहकों को वह सभी सुविधाऐं देने की कोशिश करते हैं जो कि प्रवासी भारतियों को चाहिए । इस लिए फगवाड़ा एक छोटा शहर होने पर भी, वहां लगभग सभी मुख्य बैंक हैं ।
परन्तु यहां एक पेच है । मैं फगवाड़ा ज्यादा नहीं जाता । मैं रोज़ लुधियाना जाता हुँ । रकम सम्भालने का काम मेरा है । मैं रकम ऐसे बैंक में रखना पसन्द करता हुँ जहां ऐ॰टी॰एम सुविधा हो ।
अब जो चैक फगवाङा से भुनवाना होता है, अगर उसे हम लुधियाना के बैकों में लगा दें तो लगभग पचास रुपये कट जाते हैं । दुसरा ऐसी रकम लगभग १५ से २० दिनों में ही हमारे खाते में आती है । बस यहीं पर मेरी उस दिन की घटना का कारण पैदा हो गया । मैं ब्राह्मण से बनिया बन गया पर आज तक उस सफर को भूल नहीं पाता ।
मेरी पत्नी को अपना वेतन कभी समय पर नहीं मिलता । वैसे भी उस महीने मेरा हाथ तंग था । यह तय था कि इस बार उस के वेतन का प्रयोग घर के खर्चों में होगा ।
जब चैक मिला तो मेरी पत्नी ने उसे लाकर मेरे हाथों में थमा दिया । मैने दुसरे ही दिन चैक लुधियाना में लगाने का सोच लिया । पर जब दुसरे दिन लुधियाना पहुँचा तो कालिज जल्दी बन्द होने के कारण मैं उलटे पाँव घर जल्दी आ गया । मैने चैक नहीं लगाया था । घर पहुँच कर देखा कि चैक लगान रह गया है । ऊपर से पैसों की ज़रुरत भी पडी हुई थी । बस इसी हालात ने इस घटना को जन्म दे दिया ।
मेरा दिमाग बहुत तेजी से चल रहा था । मैने सोचा कि अब तो दुसरे ही दिन जा कर चैक लगा सकुँगा । उस के बाद मुझे पन्द्रहा से बीस दिन और इन्तज़ार करना पडेगा । इस के अलावा पच्चास रुपय भी कट जाऐंगे । मैने सोचा कि जब मेरे पास समय है तो मैं फगवाङा चला जाता हुँ । फगवाङा जाने के दस रुपय और आने के दस रुपय और अगर दस रुपय रिक्शा का खर्चा मिला लुँ तो लगभग तीस रुपय लगेगें । और अगर अपने स्कुटर पर निकल पडुं तो यह सब तीस रुपय में हो जाऐगा । इस तरह पन्द्राह बीस दिनों का इन्तज़ार भी बचेगा । और इस तरहां हम उस दिन बानियों की सोच के मालिक बन बैठे ।
मुझे सौदा अच्छा लगा और युँ समझते हुऐ कि मैं बीस रुपय घर बैठे बैठे कमा लुँगा और चैक भी भुनवा लुँगा, मैने फगवाङा जाने का फैसला कर लिया । चैक सात हज़ार पाँच सौ का था । मुझे केवल दौ हज़ार रुपय ही चाहिऐ थे । मैने सोचा कि दुसरे दिन पाँच हज़ार लुधियाना में जमां करवा दुँगा । उस की फिक्स डिपाज़िट भी उसी दिन बन जाऐगी । इस तरह तो सोने पर सुहागा हो जाएगा ।
बस जी मैने स्कुटर उठाया और फगवाडे की ओर जी०टी रोड(G. T. Road-Grand Trunk Road NH 1 or Sher Shah Suri Marg) पर निकल पडे । जल्द ही लहलराते खेत दिखाइ देने लग पडे । मन में एक अजीब तरह का गर्व महसुस हो रहा था । देखो तो कितनी समझ से काम ले रहा था । बस जाते ही चैक जमा करवा कर पैसे निकलवा लेने थे और उस पर बीस रुपय भी बचा लेने थे । हाथों हाथ एक दिन की कमाई बीस रुपय बढा लेनी थी । ऐसा सोचते हुए मैं फगवाडे पहुँच गया ।
मुझे बताया गया था कि फगवाडे के शुरु में ही वह बैंक है जहां से चैक का भुगतान होना था । फगवाडे में घुसते ही वह बैंक दिखाई दिया । जी०टी रोड से उतर कर एक टुटी हुई सडक उस बैंक तक जाती थी । हमने उस बैंक के पास जा कर अपना स्कुटर रोका । उस बैंक में घुसने के लिए हमे जालीदार दरवाज़े से कुछ फंस कर अन्दर जाना पडा । पँजाब में आतकंवाद तो खत्म हो चुका है परन्तु उस समय में अपनाए गए सुरक्षा के नाम पर प्रवेश द्वारों पर अवरोध अभी भी मिल जाते हैं । वह ग्राहकों के कार्यों में अब भी अवरोध पैदा करते हैं ।
साहब मैं बैंक में प्रवेश कर गया । एक लम्बी सी अन्दर को जाती हुई गुफा के समान उस बैक की रुपरेखा थी । प्रवेश द्वार के दुसरे छोर पर अन्धेरा लग रहा था । पहला भाव मन में यह ही आया, अरे कैसा बैंक है टुटा फुटा सा?
मैने अन्दर प्रवेश करते ही साहयक कांउटर देखा । उस के सामने कुछ ज्यादा उमर की एक ग्रामिण महिला खडी थी । मेज़ के दुसरी ओर एक बैंक कर्मचारी कुछ लिखने लगा हुआ था ।
मैने आगे बड कर धीरे से कहा,
"ऐकुज़ मी !"
उस बैंकर ने सिर उठा कर मेरी ओर देखते हुए कहा,
"यैस ! कहिए ?"
मैने उस के बात करने के लहज़े से अनुमान लगाया कि वह तो दक्षिण भारतिए है । मैने झट से अंग्रेज़ी का सहारा लिया । जैसी कि अपनी यह चाल रहती है कि जब कभी भी अंग्रेज़ी बोलने का मौका मिले, हम ऐसी अंग्रेज़ी बोलते हैं कि जैसे अभी ही हिथ्रो एयरपोर्ट(Heathrow Airport)से चले आए हैं और भारत आकर अभी ही मुँह खोला है । अरे भाई, हम तो हाईली ऐजुकेडिड हैं न !!
तो साहब मैंने पहले यह पुछा कि जो चैक मेरे हाथ में है क्या उस का भुगतान उसी शाखा से होगा ? मैं अपनी बात पूरी ही नहीं कर पाया था कि जो ग्रामिण महिला पहले से ही खडी थी, वे बिच में ही बोल पडी,
"बे काका, मैं पैसे बी कडाने ने ।
वो बैंकर जो मुझे सुन रहा था, उस महिला की ओर मुख कर के बोला,
"आप की कापि अभी आति ही होगी । आप तब तक वोचर भर लो ।"
यह कहते हुए उस ने मेरे हाथ से चैक पकड लिया । उस चैक का निरीक्षण करते हुए मुझे बताया कि वह चैक उसी शाखा का है परन्तु उसे पहले उस के नाम पर जमा कराना पडेगा जिस के लिए वह निकाला गया है और वही व्यक्ति उसे निकलवा सकता है । मैने उसे बताया कि मेरे पास राशि प्राप्त करने वाले व्यक्ति का "सैल्फ" का चैक है और मैं ही पैसे निकलवाऊँगा ।
अभी मैं अपनी बात पूरी ही नहीं कर पाया था कि वही महिला बीच में फिर बोल पडी,
"बै काका, इह बोचर ताँ तुँ ही पर दे । मैं अनपढ तों नइयों पर होना ।
बैंकर ने उसे की ओर ध्यान देते हुए बडे विनम्र भाव से कहा,
"अच्छा माता जी ।"
इस पर मुझे थोडी सी खिज आई । मैने अपनी बात पूरी नहीं की थी और यह महिला बीच में टोके जा रही है । मैंने भी बीच में टोकते हुए पुछा कि क्या वह मुझे चैक जमा करवाने और पैसे निकलवाने की विधि तथा उप्युक्त फार्म दिलवा सक्ता है । इस पर उस बैंकर ने कुछ फार्म से निकाल कर मुझ से खाता धारक का नाम पुछने लगा । इस से पहले मैं कुछ बोलुँ, वही महिला फिर बोल उठी,
"बे, काका, मेरा बी कम करदे ।"
मैने उस महिला की ओर देखा । उस ने अजीब से ढंग से चुन्नी ली हुई थी । उस के बाल आधे काले आधे सफेद थे । देखने में वह किसी सधारण से घर से लग रही थी । मेरे मन को हुआ कि इस औरत ने मेरे काम में दो बार रुकावट डाली है । यह कोई दो तीन हज़ार रुपया लेने आई होगी । शायद यह कन्हि पर आया या माई का काम करने वाली छोटी जाति कि औरत होगी । यह बिन वज़ह तंग कर रही है ।
मैंने बैंकर की ओर देखते हुए अंग्रेज़ी में कहा कि मैं फार्म खुद भर लुँगा । इस पर जैसे उस ने राहत सी महसुस की और मुझे बढे अच्छे ढंग से बताया कि कौन सी खिडकी पर मुझे चैक देना है और कहां से सेल्फ के चैक का टोक्न लेना है । जब वह यह सब मुझे बता रहा था तब भी उसी महिला ने उसे दो तीन बार टोकने की कोशिश की । इस पर बैंकर ने उसे विनम्रता से कहा,
"माता जी, आप का काम अभी करता हुँ ।"
मैने फार्म ले लिए और वहीं कुछ हट कर फार्म भरने लगा । वह महिला अभी भी वहीं खडी उस बैंकर को कह रही थी कि वह उस का भी फार्म भर दे । उस की अवाज़ मेरे कानों में पड रही थी । मन ही मन मैं कह रहा था कि अशिक्षित व्यक्ति खुद तो तंग होता ही है और दुसरों को भी तंग करता है ।
इतने में मुझे सुनाई दिया कि वह बैंकर उस महिला से बोला,
"लाओ माता, आप का वोचर भरुँ । कितने पैसे निकलवाना चाहती हो ?"
मैने मन में बोला, "दो हज़ार !!"
उस समय में फार्म पर चैक की सात हज़ार पाँच सौ की रकम भर रहा था ।
मेरे कान में बैंकर की फिर अवाज़ पडी,
"माता, कितनी रकम निकलवानी है ।
दो ही पल में मैने फिर सुना,
"माता, दो लाख ही लेने हैं न , ठीक है ।"
वह महीला बोली,
"हां काका, हाले इने ही पैसे चाहिदे हण ।"
मेरी कलम वहीं रुक गई । मैने सिर उठा कर उस महिला की ओर देखा । वह बडी शान्ति से घडी थी । उस के चेहरे पर किसी भी तरह का भाव स्पष्ट नहीं हो रहा था ।
मैने मन ही मन में कहा,
"लिखना तक तो आता नहीं और दो लाख निकलवाने लगी है । क्या करेगी इतने पैसों का? भग्वान ने भी जाने कैसे कैसे लोगौं पर कृपा कर रखी है ।"
युँ खुद से ही बातें करते हुए मैने लिखा पढी का काम निपटाया और टौकन लेकर रकम निकालने वाली खिडकी टैलर (Teller) के पास चला गया । यह खिडकी बैंक के काफि भीतर जा कर थी जहां रोशनी बहुत कम थी । कैशियर अपनी कुर्सी पर नहीं बैठा हुआ था । उस का कैबिन पिछे से शायद बन्द था । मैं जा कर उस के कांऊटर के पास खडा हो गया ।
मन में गर्व हो रहा था कि मैने एक बहुत बडा मोर्चा मार लिया है । अभी कैशियर ने आ जाना था । मुझे रकम मिल जानी थी । अगले चालिस से पचास मिन्ट तक मैने घर में होना था । मेरी नज़र साहयक कांऊटर पडी । वही ग्रामिण महिला अभी भी वहीं खडी थी । शायद उस के दो लाख का वोचर भरने का कार्य पूरा नहीं हुआ था । मेरी नज़र मेरे दांई ओर दिवार से सटी हुई सैटी पर पडी । वह सभी सीटें कोइ चालिस पच्चास की उमर की औरतों से भरी पडी थीं । मैने उन को अनदेखा स करके अपने बाईं ओर टैलर की सीट की ओर देखा । खजान्ची अभी भी नहीं आया था । मेरी नज़र बैंक के अन्य कर्मचारियों का नरिक्षण करने लगीं । दिमाग में भी विचारों के घोडे धौड रहे थे । मुझे अपने प्रकाशक का ध्यान आया । साथ की साथ मुझे अपनी अगली किताब के बारे में विचार आने लगे ।
मैं अपने विचारों की दुनिया में खोता चला जा रहा था । इतने में टैलर की कैबिन का दरवाज़ा खुला । दो व्यक्ति दरवाज़े में फसते से हुए एक भारी भरकम सी पेटी कैबिन के अन्दर ले आए और ज़मीन पर रख दी । फिर एक आदमी बाहर निकल गया पर जल्द ही हाथों में नोंटों की गठियां अन्दर आकर दुसरे व्यक्ति को दे दी । दुसरे व्यक्ति ने वह गठियां टैलर की मेज़ पर टीका दीं । अब फिर पहला वाला व्यक्ति और गठियां ले आया । इस प्रकार वह सात आठ बार अन्दर बाहर हुआ और हर बार कुछ गठियां पहले आदमी को पकडा दी । फिर उन दोनो में कुछ बात चीत हुई और पहला व्यक्ति बाहर चला गया । दुसरा व्यक्ति कैबिन में ही रहा । खजान्ची की सीट पर बैठने से पहले उसने कैबिन के दरवाज़े को ताला लगाया । फिर उस ने कैबिन से बाहर लगी हुई एक कुर्सी पर बैठे एक अन्य कर्मचारी से बात करी । उस ने टैलर कैबिन में बहुत से कागज़ ठकेल दिए जिसे खजान्ची की सीट पर बैठे व्यक्ति ने लपक लिए । सो यह व्यक्ति खज़ान्ची ही था । मैने सोचा, चलो खज़ान्ची तो आगया और अब यह काम निपट जाएगा । इतने में खज़ान्ची ने वो कागज़ जो उसे साथ वाली सीट से मिले थे शायद उन्हें समेट लिया था । मेरी नज़र लगातार उस पर लगी हुई थी । कुछ देर बाद खजान्ची ने अपने कैबीन से बाहर की ओर देखा । मैने झट से अपना टोकन उस की ओर कर दिया । खजान्ची ने टोकन पर मेरा नम्बर देखा और फिर मुझे रुकने के लिए कहा । मैने अपना हाथ पिछे हटा लिया और शान्ति से खडा रहा ।
कुछ ही पलों बाद, खजान्ची अपनी सीट से थोडा स उठा और ज़ोर से अवाज़ लगाई,
"बीबी राजिन्द्र कौर !!"
मेरी नज़र झट से दाईं ओर गई जहां पर बहुत सारी औरतें बैठी हुई थीं । जहां मैं खडा था वहीं करीब से एक महीला उठी और बोली,
"हां बीरा, मैं हां राजिन्द्र कौर !!"
"माता, किने पैसे क़डाने ने?", खजान्ची ने पूछा ।
वह महिला मुस्कराती हुई बोली,
"बीरा, मैं नौ लख कडाने ने !!"
"नौ लाख!!!" यह रकम मेरे कानों में सनसनाती सी लगी ।
मेरी नज़र उस औरत पर टिक गई । उसने चमचमाती सी सलवार कमीज़ पहन रखी थी । बाल उस के हलके से बिखरे हुए थे । हाथ में उस के एक नीले रंग का बडा सा बैग था जिस पर ब्रिटिश एयरवेज़(British Airways) का चिन्ह साफ दिखाई दे रहा था । बैग पर फलाईट कलीयरन्स की चेपी भी लगी हुई थी जो की काफि ताज़ी जान पडती थी । ऐसा लग रहा था कि वह बैग शायद एक दो दिन पहले ही हवाई जहाज़ से लाया गया हो ।
इतने में खजान्ची बोला,
"नहीं, तुसी नहीं । तुसी हाले बैठो ।"
खजान्ची ने फिर ऊँची अवाज़ कर के बौला,
"बीबी रजिन्द्र कौर है कोई?"
अब की बार उन सीटों पर दुसरे छौर पर बैठी एक और महिला बौली,
"हां काका, मेरा नां बी रजिन्द्र कौर है ।"
खजान्ची उन्हें अपने पास बुलाते हुए बोला,
"इदर नेडे आवो ।"
वह महिला जो कि चालिस से ज्यादा की लगती थी, अपना कुछ समान समेटने लगी । उस के साथ एक दुसरी महिला भी खडी हो गई । इस महिला के पास एस लम्बा सा बैग था जिस पर ऐरोफलोट हवाई सेवा (Aerofloat) का चिन्ह था । वह भी उस की मद्द करने लगी । इन महिलाओं ने टैलर की खिडकी की ओर आने में कुछ समय लगा दिया ।
मेरा ध्यान मेरे नज़दीक बैठी महिला की ओर फिर चला गया जिसने नौ लाख रुपऐ माँगे थे । वह अपनी संगनी से बातों में मस्त थी । मैने उस की बातों की ओर ध्यान दिया । वह पंजाबी में कह रही थी कि ६५००० की टिकट लेकर सरदार जी (उस के पति) बाहर गए हैं ।
फिर उस की संगनी ने उस से कुछ कहा, जिस के जवाब में वह बोली,
"लै, उह प्लाट तां आसी ३५ लख विच लिता सी!!"
इतने में दुसरी राजिन्द्र कौर अपनी संगनी सहित टैलर पर आ गई थी ।
खजान्ची उस से पूछ रहा था,
"माता, किने पैसे कडाने ने ?"
"काका, सानु तां सत लख चाहिदे हण ।" वो बोली
खजान्ची ने कहा,
"दवो, अपना टोकन दवो ।"
"सात लाख !!!" मेरे होश पर यह रकम भी फटाक से लगी । मैं सोचने लगा कि नौ लाख इस औरत ने निकलवाना है । सात लाख यह औरत लेकर जा रही है । अभी वो दो लाख निकलवाने वाली ने आना है । कुल हुआ १८ लाख । और इस नौ लाख वाली के पास ३५ लाख का प्लाट है । वाह, क्या बात है !! कैसे लोग इतना पैसा कमा लेते है और वह भी विदेश जा कर जहां के सम्बन्ध में यह पहले से कुछ नहीं जानते ।
अभी मैं ऐसी बातें सोच ही रहा था कि करीब में बैठी उसी महिला की बातों ने मेरा ध्यान फिर से अपनी ओर खींच लिया ।
वह कह रही थी,
"हां बहन, साडे मुण्डे ने तां सारे दरिद्र धो दिते । इस कोठी ते आसां कोई २७ लख लगा चुके हां । सरदार जी गए होए हण । हुन उह कैन्हदा है कि दुजी कोठी दा कम पूरा करन लई ३२ लख भेज देवेगा । वाहे गुरु दी बडी मेहर है । मुण्डे ने इसी साल दो बार तां मेरे ही बारदे चक्कर लगवा दिते हण । हुन मैं जा के इन पैसेयां नाल ऐजण्ट राहीं अज नवीं क्वालिस टोटा(Qualis Toyta) कडा लेनी है । सरदार जी सारा सैट कर गए हण । परसों सरदार जी अते भरजाई केनेढे(Canada) तो आ रहे हण । हुन सानु तिन गडियां दि लोड है ।"
यह सारी बातें मुझे ऐसे लगें कि जैसा मेरा मज़ाक उडा रहीं हों । मेरे मन में आए कि यह माँ अपने बेटे पर कितना गर्व कर रही है । देखने को तो यह सधारण सी अनपढ महिला लगती है पर इसने ऐसे लाल को जन्म दिया है जिसने इस के घर के सारे दरिद्र धो दिए । और मैं, जिसे अपनी शिक्षा पर इतना मान है, मैं क्या हुँ । अगर मेरी माँ आज मुझ से एक लाख भी माँग ले तो मैं नहीं दे पाऊँगा । क्या मैं बाहर जा कर इतना धन कमाने की समझ और हिम्मत रखता हुँ ।
पर मेरी हैरानी एंव परेशानी अभी और बडनी थी । जो राजिन्द्र कौर टैलर पर खडी थी उसे पैसे मिलने शुरु हो गए थे । कैशियर ने दोनों हाथों में दो दो नोटों की गठियां काऊँटर पर रखी । इस पर राजेन्द्र कौर बोली,
"काका बडे नोट नई ?"
कैशियर बोला,
"माता नहीं, बैंक चे ऐही नोट हण । लेने ने ?"
"चल लेया, ऐही दे ।" राजिन्द्र कौर बोली ।
उस ने वह गठियां पकडी और साथ खडी अपनी संगनी को बोली,
"खोल ।"
उस की संगनी के पास जो ऐरोफ्लोट वाला बैग था उसने उस का मुँह खोल दिया । राजिन्द्र कौर ने नोटों से भरे दोनों हाथ बैग में घसोडे और खाली हाथ बाहर निकाल लिए । फिर उस ने कैशियर को देखा । कैशियर नोटों की दुसरी घेप लिए हुए अपनी सीट से खडा हुआ था । राजिन्द्र कौर ने फिर उस से नोटों की गठियां पकडी और साथ खडी महिला के हाथ में पकडे बैग़ में डाल दीं । यही परक्रिया युँही कुछ सात आठ बार चली होगी । फिर अचानक कैशियर अपनी सीट पर बैठ गया और कुछ लिखने लगा ।
राजिन्द्र कौर बौली,
"काका, होर नहीं बस ?"
कैशियर बौला,
"हां माता, होर नहीं, पूरे दे दिते ।"
राजिन्द्र कौर ने जवाब में कहा,
"अच्छा लेया, किथे अँगुठा लाना ऐ ?"
यह सब देख मैं चक्करा गया । उस औरत ने सात लाख रुपया लिया पर उसे यह मालुम नहीं है कि वह सात लाख रुपया ही है । उस पर वह कैशियर से पूछ रही है,
"काका होर नहीं!!?"
वाह क्या दिलेरी है ? अगर मैं होता तो मैने एक एक गठठी गिन्नी थी । यह औरत एक दम अनपढ है । क्या इस का लडका भी बाहर गया हुआ है ? वह भी नोट पर नोट भेज रहा है? क्या मेरी माँ ने होनहार लाल पैदा नहीं किया ? क्या मेरी पढाई मात्र एक मज़ाक है ? क्या इतना पैसा मैं आज के दिन कमा पाया हुँ? क्या आने वाले दिनौं में मैं इतना पैसा कमाने की क्षमता रखता हुँ?
मेरा मन विचलित हो गया । मुझे अपने आप पर शर्म आने लगी । मुझे लगने लगा की मेरी सारी पढाई फज़ुल और बक़वास है । मैं मन को धोखा दो रहा हुँ । मेरा अपने ज्ञान पर गर्व एक मज़ाक है ।
इतने में कैशियर ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचते हुए कहा,
"दो जी, अपना टोकन दो ।"
मैने अपने विचारों की लडी को तोड कर कैशियर को अपना टोकन थमा दिया । उसने मुझे ७५०० की रकम हस्ताक्षर करवाने के बाद दे दी । मैने नोट पकडे और गिन्ने लगा ।
इतने में कैशियर न्ए अवाज़ लगाई,
"सुरिन्द्र कौर !!"
मैने कोई ध्यान नहीं दिया । मैने नोट गिन लिए थे । मैं बैंक सि बाहर निकलने के लिए चल पडा । मेरे कान में अवाज़ पडी, "पंज लख ।"
मेरे कदम तेज हो गए । मैं बैंक से बाहर भाग जाना चाहता था । बाहर निकल कर मैने स्कुटर उठाया और फिलौर की ओर चल पडा ।
मेरा मन उच्चाट था । अब मुझे हरे भरे खेत अच्छे नहीं लग रहे थे । मेरे कानों में वही शब्द बार बार सरगर्मी कर रहे थे ।
"नौ लाख !"
"सात लाख !"
"पांच लाख !"
"दो लाख !"
"साडे काके ने तां सारे दरिद्र धो दिते !!"
"वाहे गुरु दी बहुत मेहर है !!"
"आसी ओह प्लाट तां ३५ लख दा लिता सी !!"
जो हरे भरे खेत पिछे छूट रहे थे वह अब हरे भरे खेत नहीं रहे थे । मन में आ रहा था कि यह जिन के भी खेत हैं वह प्रति खेत एक यां दो करोड के मालिक हैं । जिस के पास दस खेत है वह दस करोड का मालिक है । उस का लडका भी बाहर जा सकता है जहां से वो और कमा के ला सकता है । उन के सामने मेरी क्या बिसात ? मैंने तो २० रुपय बचाने के लिए तीन घन्टे लगा दिए । युँ मन ही मन कल्पता हुआ मैं घर पहुँच गया ।
घर पहुँच कर मैं सीधा अपने कमरे में चला गया । जेब से ७५०० रुपय निकाले । उन्हे फिर गिना । उन में से २००० निकाल कर अलग कर लिए । फिर ५५०० के नोटों को गिन्ने लगा । पर गिन्नती पूरी करने से पहले ही उन को अलमारी में रखने के लिए उठ खडा हुआ । दिमाग में वह चित्र घुम रहा था कि कैसे उस महिला ने बिना गिने ही सात लाख रुपय अपने थैले में ठुस लिए थे । और यहां मैं ७००० रुपय तीन बार गिन चुका हुँ ।
फिर मैं अपने सडडी रुम में चला गया । क्मप्युटर आन कीया । पहले से लीखे कुछ नोट्स टंकन करने लगा । पर दिमाग में उस बैंक का चित्र और उन औरतों की बातें गुँजने से हटती ही नहीं थीं । मन विचलित हो रहा था । क्या फायदा है इस पढाई का ? बिच में ही काम छोड कर अपने कमरे में आ गया । बिज़नेस टुडे(Business Today) का नया सकंलन कमरे में पडा हुआ था । उस में २००२ एम०बी०ए० कालजों की रूप रेखा एंव पलेसमेन्ट पर लेख पढने लगा । पर जैसे ही १० लाख १५ लाख पैकेज की बातें पढनी शुरू कीं मन फिर से अपनी हैसीयत का अवलोकन करने लग गया । तब फिर से दिमाग में उन औरतों की बातें घुमने लगीं की वाहे गुरु की बहुत कृपा है; हमारे लडके ने हमारे दरिद्र धो दिए । मेरी नज़र सामने लगी शिव जी एंव वैष्णो देवी(Ma Vaishnu Devi - Katra J&K) की तस्वीरों पर जाकर अटक गई । मन उच्चाट था । मेगज़ीन बीच में ही छोड कर कीचन में चला गया । वहां मम्मी कुछ पका रहीं थीं । उन से चाय बनाने के लिए कहा । मन में एक घबराहट सी हुई कि अगर मम्मी अभी मुझ से ५०००० मांगे तो क्या मैं दे पाऊँगा । मैं कीचन से बाहर जाने लगा ।
मम्मी ने अवाज़ लगाई,
"यह तुम्हारी चाय बन रही है, लेकर जाना ।"
"अच्छा मम्मी" कह कर मैं कीचन से बाहर खडा हो गया । इधर उधर पडी चीज़ों को बस युँ ही देखने लग पडा ।
इतने में मम्मी की अवाज़ आई,
"यह अपनी चाय लेजा ।"
मैं "अच्छा जी" कह कर अन्दर गया और चाय का ग्लास उठा कर अपने कमरे में आ गया ।
अनमने मन से मैं चाय पीने लगा । जाने कैसे कैसे वीचार मन में आते गए । समय कैसे बीता पता ही नहीं चला । इतने में मेरी पत्नि कमरे में दाखिल हुई । वह स्कूल से वापिस आ चुकी थी मुझे इस बात का पता ही नहीं चला ।
"कैसे हो ?" उसने मेरे पास बैठते हुए पुछा ।
"मैं आज तुम्हारे बैंक से पैसे निकलवा लाया था । ५५०० अलमारी में रख दिए हैं और दो हज़ार मैने रख लिए हैं । " मैने बुझी हुई सी अवाज़ में कहा ।
"अच्छा, आज आप फगवाडे आए थे । स्कूल आ जाना था ।" वह बौली ।
"नहीं, मैं तो १२ बजे वापिस हो लिया था ।" मैने उसे बताते हुए कहा ।
"क्या बात, बडे बुझे बझे से लग रहे हो ?" उसने मेरे हाथ पर हाथ रखते हुए पूछा । उस ने भांप लिया था कि मैं कुछ उदास हुँ ।
"बैंक में कोई बात हुई ?" उसने बिना मेरे किसी जवाब का इन्तज़ार करते हुए पुछा । उसे अशंका हुई कि जैसी मेरी आद्दत है अगर कोई उलटी सीधी बात हुई हो तो मैं वहां अवश्य किसी से तीखी बैहस में पडा हुँगा ।
"नहीं ऐसा कुछ नहीं हुआ ।" अखिर मैं बोला ।
"पैसे असानी से मिल गए थे क्या ?" उसने मुझे कुरेदने की कोशिश की ।मैने "हां" में जवाब दे दिया ।
"क्या बात ? बडे बुझे बुझे से लग रहे हो । उसने अपना पहला प्रश्न फिर दोहराया ।
अब की मैं बौला,
"वैसे हमारा इतनी क्वालिफिकेशन लेने का क्या फायदा ?"
मेरी बात सुनते ही उस ने मुझे कुछ गम्भीर लेहज़े से देखा ।
फिर बोली,
"मुझे सच सच बताओ । कहीं आप का बैंक में झगडा तो नहीं हुआ?"
मैं इस बात से थोडा स झला गया ।
मैने ज़ोर दे कर कहा,
"अरे भाई, ऐसा कुछ नहीं हुआ ।"
"फिर भी, बताओ तो, हुआ क्या है? बडे उदास हो ।" उस ने कुछ सहानुभुती वाले भाव से कहा ।
मैने कहा,
"कुछ नहीं हुआ ।"
"वैसे सोचो," मैने बात को जारी रखते हुए पुछा, "हम वैसे कितना के कमा लेते हैं ।"
"क्यों क्या हुआ? अच्छा खाते हैं । अच्छा खर्च करते हैं ।" वह बोली ।
"अरे यह कुछ भी नहीं । बस धोखा दे रहे हैं।" मैने उस की बात खत्म होते ही बोला ।
"जरा सोचो," मैने बात आगे चलाते हुए कहा," यह जो बाहर निकल जाते हैं, वह कितना कमाते हैं? हम से कई गुणा ज्यादा!! तुम्हारे भी विद्यार्थी हैं, जो तुम बताती हो, कि बाहर जाने वाले हैं । और यह भी बताती हो वह कितने नलायक और जङ बुद्धी हैं । ऐसे ही विद्यार्थी मेरे पास एम ० ए० (M. A.) में पढते हैं । पता है, क्यों पढ रहे हैं? उन्होंने बाहर जाना है और अम्बैसी (Embassy) को कन्टिन्युटी (continuity) दिखाना चाहते हैं । अंग्रेजी का एक शब्द ठीक से नहीं बोल पाते और अंग्रेज़ी में कुछ पूछ लो तो कहेंगे हमें समझ नहीं आया । बाहर जाके यह हम से ज़्यादा कमाई करेंगे । "
मैने बात को जारी रखा और मेरी पत्नि की आँखे मेरे चेहरे पर गढी हुई थीं ।
"जरा सोचो," मैं बौला, "यह मन्दबुद्धी से दिखने वाले बिलकुल नई जगह चले जाते हैं । उन्हें वहां कोई नहीं जानता । पर वह वहां जाकर अपने पैर जमाते हैं । घर बसाते हैं । फिर लाखों नोट यहां वापिस भेजतें हैं । क्या हम ऐसा करने का साहस रखते हैं? क्या फायदा है हमारी एम० ऐ० (M. A.), एम० एस सी०(M. Sc.), पी०एच डी०(Phd.), यु० जी० सी०(UGC/CSIR NET) आदि का?"
मेरी पत्नि ने मेरे कुछ और पास आते हुए कहा,
"मुझे सच सच बताओ कि आज बैंक में क्या हुआ था?"
मैने अपने पर कुछ काबु किया । फिर बैंक में घटा सारा घटनाक्रम सुना दिया । पर उस को सुन कर मेरी पत्नि पर कोई असर नहीं हुआ ।
वो बोली,
"इस में आप क्यों नराज़ हुए बैठे हो? और वो जो उन के लोग बाहर गए हैं, वह वहां जाकर जाने कैसे कैसे काम करते हैं और तभी ऐसा पैसा कमाते हैं ।"
"नहीं", मैने अपनी अवाज़ को कुछ बुलन्द करते हुए कहा, "यह ऐसा नहीं है । उन का पराक्रम हम से ज्यादा है । उन में साहस है । हम अपनी डिगरियों का आडम्बर खडा कर के फज़ुल का गर्व करते हैं । हम उन के सामने कुछ नहीं । हम एक मध्य वर्गी व्यवस्था की पैदावार हैं । हम पक्की नौकरी एंव पक्की तनख्वाह के दास हैं । हमारी सुरक्षा की भावना असल में मध्यवर्गी कमज़ोरी हैं । कभी लाखों में नोट खर्च करके देखें हैं? नहीं न !! बस, वही पक्की तनख्वाह और मध्यवर्गी सोच !!"
"अच्छा अच्छा, शांत हो जाओ ।" यह कहते हुए वह खडी हुई । "मैने अभी बहुत काम करना है । आप भी अब उठो और नीचे चलो ।" युँ कहती हुई वह कमरे से बाहर चली गई ।
मैं एक दम चुप हो गया । पर दिमाग में वही शब्द फिर गुँजने लगे । "साडे काके ने तां सारे दरिद्र धो दीते ।"
अगर पँजाबी में कहुँ तो इस घटना ने "मेनु पदरा कर दिता" ।
(समाप्त)