Tuesday, June 05, 2018

History of Constitution of India: Charter Acts and Company Rule in India 1773-1858





The book is free to download until 8 June 2018.


The book is written by Sumir Sharma to fulfil the requirements of the students of the Post Graduate course in History of Punjab University. It meets the need of the Paper HIS 213: Constitutional Development in Modern India 1773 – 1947 Unit I and Paper HIS 211: Modern India Political Process, Unit III.


The content of the book is also relevant to the students of Indian Polity and Indian Constitution pursuing the course of Post Graduate in Political Science. It is also suitable for the students of Law course.


The content of the book is equally relevant to General Studies Main paper II. The content provides material for the first section which reads, “Indian Constitution – historical underpinnings, evolution …”
The book is also relevant for undergraduate classes honours course.


It has eight chapters and two Appendix. They are as follows.
Chapter 1: The Brief History of the East India Company.
Chapter 2: The Regulating Act, 1773
Chapter 3: Pitt’s India Act, 1784
Chapter 4: Charter Act, 1793
Chapter 5: Charter Act, 1813
Chapter 6: Charter Act, 1833
Chapter 7: Charter Act, 1853
Chapter 8: Act of Better Government of India 1858


There are two Appendix. In Appendix I, there is an essay on the sources which are used for writing the contents of this book. In Appendix II, the suggestions are provided to make the book more interactive.


The book is developed as a textbook. It is written in a narrative style. On every topic, the content is written in point format. For the point format, it is meant that every paragraph explains its main heading. The paragraph is given a title or a number. It helps in writing the answers in the examination. The purpose is that the readers and the students can quickly develop an answer to any question on the topics explained in the book.


The book explains the Charter Acts as the historical background of the History of the Constitution of India. It is evident that my next volume will be on the legislation during the Crown rule in India. I will soon publish the relevant next volume. I am presently working on that volume.
To make this book interactive, I am going to reproduce some of part of this book on my blog at undergraduatehistory.blogspot.in. I will attend to their queries related to the content of the book. I am ready to provide pdf copies of individual chapters to any reader free of cost who may require it for printing purpose. The relevant instructions are given in Appendix II.


I will also write the Hindi version of this volume and release it in June 2018. The free download of that book will also be made available for five days. Keep in touch. To remain updated, subscribe to this blog. Check for subscription in the sidebar.

Saturday, July 17, 2010

बदनसीबी

बदनसीबी  
खुदा के घर से निकली 
घर मेरा ही मिला उसे 
पनाह पाने को 

वो आई 
चबूतरे से ईंट गिरी 
चबूतरा नीचे आ गिरा 
छत तड़क गयी
दीवारें  ड़ेह गईं 
दफ्न मेरा घर हुआ
मैं मर गया
मेरी सांसें चलती रहीं 


बदनसीबी
सुमीर को छोड़ निकली 


शायद अभी नहीं

Tuesday, June 02, 2009

मज़मून-ए-जिंदगी

मज़मून-ए-ज़िन्दगी
मज़मून है ज़िन्दगी
किताब मैं ख़ुद हूँ
हर पल नया पन्ना
जुड़ता है
जाने कब यह सिलसिला
रुक जाऐ
जाने कैसा मज़मून हो


इस पन्ने पर
ठाहकै
इस पन्ने पर
सिसकियाँ
इस पन्ने पर
जमां जोड़
इस पन्ने पर
खव्वाईशें
इस पन्ने पर
नाउमीदी

इस पन्ने पर
नमोशी 
इस पन्ने पर
खोफ
इस पन्ने पर
घाटै
इस पन्ने पर
बदगूमानी
इस मज़मून का
जाने कैसा मीजाज है
जाने कैसा मज़मून हो


जिल्त पर है
नाम मेरा
कलमकार का
पता नहीं
दुनिया की मिस्सलों में
है जिकर मेरा
उन पर जोर नहीं
इसे आग के हवाले कर दो
धुयाँ उठेगा
शायद तुम्हे पता चल जाऐ
रद्दी में दे दो इस को
शायद मेरे लिफाफे बन जाएं
मज़मून की क्या कैफियत है
जाने कैसा मज़मून है


इस पन्ने पर क्या दर्ज है
अगले पन्ने पर क्या होगा
उसे पता है
इसे पता है
मुझ को ही मालूम नहीं
जाने क्या मज़मून है


यह पन्ना तो
सिहा है
इस पन्ने के हर्फ
मिट चुकें हैं
इस पन्ने की लिखावट
सही
नहीं
इस पन्ने पर
अनजान भाषा
इस पन्ने पर
सिरफ लकीरें हैं
यह पन्ना तो
इस किताब का ही नहीं
यह कैसा मज़मून है

Tuesday, March 25, 2008

जिंदगी अब इशक हुआ है तुझ से

कैसे कहें किसी से
दिल लगता नहीँ
इतने अकेले हैं
कोई जचता नही
जिंदगी
अब इशक हुआ है तुझ से


मिल जाऐ कोई
इस की हसरत नही
बिछड जाऐ कोइ
इस की फिक्र नही
जिंदगी
अब इशक हुआ है तुझ से

गिला है किसी को मुझसे
अपनी बला से
गिला है मुझको किसी से
तो फिर क्या
जिंदगी
अब इशक हुआ है तुझ से

डाली पर फूल दिखे
मुस्करा देता हूँ
मटेला बच्चा भीख मांगे
आँखों से सह्लाह देता हूँ
जिंदगी
अब इशक हुआ है तुझ से

Saturday, January 27, 2007

हासिल मे बेदाग

हम से
हमारे दिल का
हाल न पुछिए
बद्हवासी मे जाने
क्या क्या कह गए



युँ तो किसी से
गिला नही हमे
सीने पर जाने
किस किस के वार
हम सह गए


कदरो कीमतो का अब यह है
हर एक मुजरिम दुहाई देकर
गुणाह बख्शा लेता है
खुदाई का दावा कर के
शैतान भी गन्गा नहा लेता है


अलफाजो का अब अर्थ सिफर हुआ
भावो की धज्जिया उड चली


जजबातो के अदाकारो ने
शब्दो के अर्थ बदल दिए
बेखोफ हुआ आदम युँ

कि खुदा को
हिसाब सिखाने चला है
पाप पुण का खाता
ऍसा लिखता है कि
हासिल मे बेदाग दिखता है


हम से
हमारे दिल का
हाल न पुछिए


बद्हवासी मे जाने
क्या क्या कह गए


युँ तो किसी से
गिला नही हमे
बस युँ ही
खुदा को
काफिर कह गए

Sunday, October 30, 2005

विलय की नीति के मुख्य कर्त्ताधर्ता

आर० सी० मजुमदार ने British Paramountancy में Doctrine of Lapse पर जिस बात का खुलासा किया है वह यह है कि इस सिद्धान्त को पूरी तरह डलहोज़ी पर मडना ठीक नहीं होगा । इस सिद्धान्त को लागु करने पर जो बात मुख्य रुप से घटित हो रही थी वो यह थी कि कम्पनी का सीमा क्षेत्र बड रहा था । भारतिय राज्यों को बङी तेजी से नष्ट कर के उन के क्षेत्रों को कम्पनी राज का क्षेत्र घोषित किया जा रहा था ।


अब प्रश्न यह उठता है कि अगर कम्पनी का क्षेत्र बङ रहा था तो इस से डल्होज़ी को कोई खास फायदा हो रहा था या फिर हर हाल में कम्पनी को तो फायदा हो ही रहा था ।


यहां पर एक बात पर ध्यान देना ज़रुरी है और वह यह है कि यह सिद्धान्त १८५० में लागु हुआ और उस समय तक कम्पनी पुरी तरह पिट चुकी थी । कम्पनी घाटे पर जा रही थी । हिस्सेदारों को काफि समय से लाभान्श नहीं मिल रहा था । कम्पनी का कई व्यापारिक क्षेत्रों पर एकाधिकार खत्म हो चुका था । यहां तक कि कम्पनी के पास कोई एकाधिकार रह ही नहीं गया था । कम्पनी के मुकाबले में कई बरतानवी व्यापरी व्यापार कर रहे थे । १८५३ में चार्टर एक्ट में यह स्पष्ट व्यवस्था कर दी गई थी कि कम्पनी अपने कर्जदारों को जल्द से जल्द अदायगी करेगी एंव कम्पनी को बन्द करने की प्रक्रिया की शरुआत की जाऐगी । यहां तक की चार्टर में यह तक भी अकिंत नहीं किया गया था कि कम्पनी को और कितने सालों तक बने रहने कि अनुमति दी गई थी ।


इन सब बातों को ध्यान में रख कर अगर इस तथ्य की समीक्षा की जाए कि कम्पनी धङा धङ अपने क्षेत्र बढाए जा रही थी तो यह प्रशन सभाविक हि उठ खङा होता है कि वह ऐसा किस लिए कर रही थी । इस बात को दूसरे शब्दों में भी पूछा जा सकता कि ऐसे हालातों में डल्होज़ी को क्या ज़रुरत पङी थी कि वह कम्पनी का क्षेत्रफल बढाए जा रहा था जब कि कम्पनी को बन्द करने के स्पष्ट संकेत आरहे थे । यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि वो जिस भी क्षेत्र का विलय करता था उस की मन्जुरी उसे बोर्ड आँफ ड्रायक्टर्स से लेनी पङती थी और उसे वह मन्जुरी असानी से मिल भी जाती थी ।


इन सारी बातों की समीक्षा करते हुए मजुमदार यह तर्क देता है कि विलय की नीति डल्होज़ी पर नहीं मङी जानी चाहिए । यह ठीक है कि यह सारा काम डल्होज़ी के हाथों हुआ और डल्होज़ी ने भी कोई कसर नहीं छोडी । उस ने तो बडी शान से हर एक विलय को अपने नाम पर गङते हुए इस बात का गर्व किया कि उस ने यह सब किया । मजुमदार ने स्पष्ट किया है कि उस के इस खेल में बोर्ड आँफ कन्ट्रोल पूरा पूरा भागिदार था । बोर्ड आँफ कन्ट्रोल के ही ईशारे पर डल्होज़ी यह हौंसला कर सका । क्योंकि बोर्ड आँफ कन्ट्रोल का ईशारा था तो हि बोर्ड आँफ ड्रायक्टर्स से मन्जुरी मिलती गई । ड्रायक्टर्स तो यह जानते थे कि अब उन की कम्पनी तो रद्ध होने वाली है और जो कुछ भी कम्पनी हिन्दुस्तान में बनाए बैठी है उस सब की जिम्मेवारी ब्रिटिश सरकार ही ले सकती है एंव लेने वाली है क्योंकि कम्पनी तो बुरी तरह पिट चुकी थी । अगर सरकार कि ओर से ईशारा है तो उन्हें क्या दिक्कत हो सकती थी । और ऐसा हि हो रहा था ।


अतः विलय की नीति के कर्त्ताधर्त्ता ब्रिटिश सरकार खुद हि थी । कम्पनी या डल्होज़ी का नाम तो अपने पाप छुपाने के लिए किया गया एंव अपने कार्य को न्यायिक दिखाने के लिए किया गया ।


विलय की नीति के मुख्य कर्त्ताधर्ता

Sunday, October 23, 2005

लैप्स का सिद्धान्त - १८५७ के गदर का कारण: एक नया पक्ष:-

लैप्स का सिद्धान्त १८५७ के विद्रोह का कारण तो था हि पर इस सिद्धन्त को लागु करते समय जो कार्यवाई की जाती थी । वह इस सिद्धान्त के विरुद्ध विद्रोह का ज्यादा प्रभावकारी क़ारण बनी यह एक ऐसा पक्ष है जिन्हें किताबों में ज्यादा उजागर नहीं किया गया है ।

लैप्स के सिद्धान्त के अधार पर अंग्रेजों ने नागपुर को अपने कब्जे में कर लिया था । इस के बाद उन्होंने भोंसले परिवार की सम्पति जब्त कर के उसे बेचने का प्रोग्राम बनाया । महल के पशु, घोडे एंव हाथी नागपुर के पास जानवर मण्डी में ओनेपोने दामों में बेच दिए गए । महल के जेवराहत कौलकत्ता में निलामी के लिए भेज दिए गए । वहां निलामी इस प्रकार से करवाई गई कि वहां अभुषण कम दामों में बिके । इस के बाद महल का फर्निचर बेचने का प्रोग्राम बनाया गया । यह सारी गतिविधियां भौंसले परिवार के लिए अति अपमानजनक थीं । महल की वृध राजरानियां बहुत क्षुब्ध एंव भडकी हुईं थीं । इस से जनता जिन के मन में राजमहिल की वृध महिलायों के लिए बहुत आदर था, वह भी भडक उठे । उन का यह अन्जाम दुसरे राज परिवार वाले भी देख रहे थे । उन्हें भौंसले परिवार की रानियों की अपमानजनक स्थिति में अपने से भविष्य में हो सकने वाली दुरदशा की झलक दिखाई दे रही थी ।

लैप्स का सिद्धान्त तो एक कानुनी मुद्दा था यह सिद्धान्त तो विद्रोह का कारण बना ही बना पर इस के साथ जो लूटखसोट प्रशासनिक पर उपयोगवहिन एंव अन्यायिक कार्यवाइयां की गई वह खुद में विद्रोह भडकाने के लिए काफि थीं । इस बात को आर० सी० मजुमदार ने सफलता पूर्वक उजागर किया है परन्तु प्रचलित इतिहास की किताबों में इस बात को अच्छे से उभारा नहीं गया है ।

Musafiroon ki gintee